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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
में हुआ बताया जाता है। ई. १४६८ में धन्नाशाह के पुत्र रत्नाशाह ने राणा राचमल्ल के समय मे उसे पूर्ण किया तथा प्रतिष्ठा करवायी थी। सेठद्वय की अमरकीर्ति का यह सजीव स्मारक है। इसके प्रतिष्ठापक खरतरगच्छीय आचार्य जिनसमुद्र सूरि थे। रत्नाशाह और धरणाशाह दोनों की धार्मिक रूचि को बढ़ाने में माता कर्पूरदे का महत्वपूर्ण योगदान था।२८
ई. सन् की १४वीं शताब्दी में श्राविका उदयश्री ने अनेक प्राचीन जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। ई. सन् १३६७ में कवि धनपाल से उसने अपभ्रंश भाषा में बाहुबली चरित्र नामक काव्य की रचना करवाई थी। संवत् १२५५ में धारावर्ष की रानी अंगारदेवी ने जैन मंदिर के लिए कुछ भूमि प्रदान की थी। संवत् १२४२ के एक लेख में परमार धारावर्ष की पटरानी गीगादेवी का नाम आता है। इस रानी ने परसाल (सिरोही से कुछ दूर) गाँव के बीच में एक सुंदर बावड़ी का निर्माण करवाया था। संवत् ११८६ में चौहान वंश के महाराजाधिराज रायपाल की धर्मपत्नी तथा रूद्रपाल, अश्वपाल की माता मीनलदेवी का उल्लेख आता है। मीनलदेवी ने वल्लभपुर (मारवाड़) स्थित भगवान् आदिनाथ के प्राचीन मंदिर के लिए कुछ भेंट अर्पित की थी।
चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली के खिलजी सुलतानों के शासनकाल में ठक्कुर फेरू नाम के एक जैन शाही रत्नपरीक्षक और सरकारी टकसाल के अधयक्ष थे, बड़े विद्वान और लेखक थे। इन्होंने युगप्रधान चौपाई, रत्न परीक्षा, द्रव्य धातु उत्पत्ति' वास्तुसार प्रकरण, जोईसार, नामक ग्रंथों की रचना की थी, तथा कई अन्य ग्रंथ भी रचे थे। इसी शताब्दी में माँडू निवासी सुलतान गयासुद्दीन के मंत्रीमंडल में प्रतिष्ठित प्राग्वाट् वंशी जैन भ्राता युगल सूर और वीर नामक दानी, सकती, यशस्वी वीर हुए थे। पाटन निवासी अग्रवाल जैन साहू सागिया हुए थे, जिन्होंने पाँच विशेष ग्रंथ लिखवाए थे। जिनालय में परिवार सहित पूजोत्सव भी कराया था। दिल्ली के सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक को जिनप्रभसूरि से संपर्क भी स्थापित करवाया था। दिल्ली के सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक ने जिनप्रभसूरि से प्रभावित होकर कई फरमान जारी किये थे। फलस्वरूप आचार्य जी ने हस्तिनापुर, मथुरा आदि अनेक तीर्थों की संघ सहित यात्राएँ की थी, तथा अनेक धर्मोत्सव भी किये थे। राजदरबार में वादियों से शास्त्रार्थ भी किये थे। सुलतान ने एक पौषधशाला दिल्ली में स्थापित की थी तथा भ० महावीर जी की प्रतिमा मंगवाकर देवालय में प्रतिष्ठित करवाई थी। सुलतान की माँ मखदूमेजहाँ बेगम भी जैन गुरूओं का आदर करती थी।
__ पंद्रहवीं शताब्दी में हिसार निवासी अग्रवाल जैन साहू हेमराज दिल्ली के सुलतान सैयद मुबारकशाह के राजमंत्री थे। उनकी पत्नी का नाम देवराजी था, इनके तीन पुत्र थे। हेमराज का पिता वील्हासाहु और माता का नाम धेनाही था। पितामह का नाम जालपुसाहू तथा पितामही का नाम निउजी था। सारा परिवार परम जिनभक्त था। भट्टारक यशः कीर्ति इनके गुरू थे। पंद्रहवीं शताब्दी में दिल्ली में गर्गगोत्रीय अग्रवाल जैन देवचंद्र साह के पत्र दिउढासाह की पल्हाडी और लाडो नाम की दो पत्नियाँ थी। लाडो का पुत्र वीरदास तथा पौत्र उदयचंद था। इन्होंने गुणवान् पुत्रों को जन्म देकर धर्म प्रभावना में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया था। भायाणदेश के श्रीपथनगर के अग्रवाल सेठ लखमदेव की वाल्हाही और महादेवी नाम की दो पत्नियाँ थी। साहु थील्हा, महादेवी के पुत्र थे जो दानी, उदार राजमान्य और विद्यारसिक थी। संपूर्ण परिवार धनी और धर्मात्मा था। इस शती में चौधरी चीमा के पुत्र महणचंद की पत्नी खेमाही से सद्गुणसंपन्न चौधरी देवराज पैदा हुए थे।२६
चौदहवीं पंद्रहवीं शताब्दी में आगरा नगर के पूर्व-दक्षिण और ग्वालियर राज्य के उत्तर में, यमुना और चम्बल के मध्यवर्ती प्रदेश में असाई खेड़ा के भरों का राज्य था, जो जैन धर्म के अनुयायी थे। इस काल में १३८१ (या १३७१ ईस्वीं) में चंद्रपाट दुर्गनिवासी महाराज पुत्र रावत होतमी के पुत्र चुन्नीददेव ने अपनी पत्नी भट्टो तथा पुत्र साधुसिंह सहित काष्ठासंघी अनंतकीर्तिदेव से एक जिनालय की प्रतिष्ठा करायी थी। इटावा जिले के करहम नगर चौहान सामंत राजा भोजराज के मंत्री यदुवंशी अमर सिंह जैन धर्म के सम्पालक थे, उनकी पत्नी कमल श्री थी। तीन पुत्र थे नंदन, सोणिग एवं लोणा, जिनमें लोणा साहु विशेष रूप से अपने धन का उपयोग जिनयात्रा, प्रतिष्ठा, विधान-उद्यापन आदि प्रशस्त कार्यों में करते थे। __पंद्रहवीं शताब्दी में मंत्रीश्वर कुशराज (जैसवाल कुलभूषण) जैन धर्मानुयायी थे, उनके दादा-दादी भुल्लण और उदितादेवी थे। पिता जैनपाल तथा माता लोणादेवी थी। मंत्रीश्वर कुशराज की रल्हो, लक्षण श्री और कौशोरा नामक तीन पत्नियाँ थी। तीनों ही सती-साध्वी, गुणवती, जिनपूजानुरक्त धर्मात्मा महिलाएँ थीं। इसी शती में ग्वालियर के महाराजा डूंगरसिंह एवं कीर्तिसिंह दोनों ही नरेश परम जिनभक्त थे। इनके शासनकाल में अनेक जिनबिम्ब प्रतिष्ठाएँ हुई थी। इनके समय में ग्वालियर जैनविद्या का प्रसिद्ध
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