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________________ 222 आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ इन तीनों में से किसी भी एक के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का मौखिक अथवा लिखित रूप में वर्णन किया जाये तो अनिवार्य रूप से शेष दो के नाम भी स्वतः ही उस विवरण में सम्मिलित हो जाएंगे।२२ सम्प्रति महाराज को बोध देकर जैनधर्म का सुदूरस्थ प्रदेशों में प्रचार करवानेवाले, आचार्य सुहस्ति जी एवं वीर विक्रमादित्य को प्रतिबोध एवं जिनशासन की प्रभावना करने वाले आचार्य सिद्धसेन जी के पश्चात् आचार्य श्री हेमचंद्र जी ही विगत ढ़ाई हज़ार वर्षों में ऐसे महान जिनशासन प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने सिद्धराज जयसिंह को जिनशासन का हितैषी और कुमारपाल राजा को श्रावक बनाकर जिनशासन की महती प्रभावना की थी। यह हेमचंद्रसूरि जी के उपदेशों का ही प्रभाव था कि कुमारपाल ने अपने विशाल राज्य के विस्तत भूभाग में चौदह वर्ष तक निरन्तर अमारि की घोषणा करवाकर कोटि-कोटि मूक पशुओं को अभयदान प्रदान कर जैनधर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाया था।२३ तीर्थाधिराज आबू संसार के दर्शनीय स्थानों में से एक है। यह तीर्थ भारतवर्ष का तो अंगार है, सिरमौर है। विश्व का कोई भी पर्यटक आबू के कला-वैभव को देखे बिना हिन्दुस्तान के भ्रमण को अधूरा मानता है। आबू प्रागैतिहासिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक तीर्थस्थल है। ओं का आदितीर्थ, जैनों की धर्म-संस्कति एवं कला का संगम तथा अन्य धर्मों के लिए भी यह पावनभूमि है। कर्नल टॉड़ ने अपनी पुस्तक' ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया (Travels in Western India) में विमलवसहि-आदिनाथ मंदिर के लिए लिखा है, "सम्पूर्ण भारत में कला की दष्टि से यह मंदिर सर्वोत्तम है एवं ताजमहल के अतिरिक्ति दूसरी वास्तु रचनाएँ इसके समक्ष बौनी दिखाई देती है। दूसरे मंदिर लूणवसहि-नेमिनाथ मंदिर (वस्तुपाल निर्मित) के संबंध में शिल्पकला मर्मज्ञ एवं पाश्चात्य वास्तुविद् फर्ग्युसन ने अपनी पुस्तक 'इलस्ट्रेशन ऑफ इनोसेन्ट आर्कीटेक्चर इन हिंदुस्तान (Illustration of Innocent Architecture in Hindustan) में लिखा है "संगमरमर से निर्मित, छैनी एवं हथौड़े से टंकित इस मंदिर की आकतियों को कलम से कागज पर भी उत्कीर्ण करना बहुत कठिन है।२४ । आज के राजस्थान प्रदेश के इतिहास निर्माण में अर्बुद मण्डल की जैन संस्कति का स्थान महत्वपूर्ण है। यहाँ की संस्कृति, जैन मंदिरों तथा हिन्दू मंदिरों की स्थापत्य कला ने राजस्थान एवं गुजरात के इतिहास को प्रभावित किया है। अर्बुद परिमण्डल (आबू) की बसन्तगढ़ नगर की बसन्तगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं का सबसे बड़ा संग्रह सिरोही की जैन मंदिर गली का जैन पुरातत्व मंदिर है। ७०० के लगभग धातु प्रतिमायें दर्शनार्थ संगहीत है। ये धातु प्रतिमायें संवत् १०७७. वि. सं. से १६वीं सदी तक की है। इन पाँच सौ इकतालीस धातु प्रतिमाओं में से ४३४ धातु प्रतिमाओं के निर्माण में श्राविका वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अधिकांश श्राविकायें प्राग्वाट्ज्ञातीय, ओसवाल ज्ञातीय, उपकेशज्ञातीय आदि गोत्र की हैं। इन श्राविकाओं के कुछ नाम इस प्रकार है, शोभा, विमला, तीजा, सोमी, रूपी, रूपिणी, हीरू, पूरी, ललिता, करमा, सविता, सीतादे, रसलदेवी, पूनमदे, खेतू चापल, नामल आदि है। इन श्राविकाओं ने चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम, द्वितीय, ततीय, पांचवें, ग्यारहवें, बारहवें, सोलहवें, बाईसवे, तेईसवे, चौबीसवे आदि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को बनवाया था। इन श्राविकाओं के प्रेरणास्त्रोत आचार्यों के कुछ नाम इस प्रकार है, जिन्होंने मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। वे हैं श्री रत्नाकरसूरि, शांतिसूरि, माणिक्यसूरि हेमतिलकसूरि, कमलचंद्रसूरि, जिनवर्द्धनसूरि, रत्नशेखरसूरि आदि। ये आचार्य खरतरगच्छ, तपागच्छ, चैत्रगच्छ, मडाहडगच्छ, नागेंद्रगच्छ आदि से संबंधित है।२५ तेरहवीं शताब्दी में आबू का विश्व प्रसिद्ध जैन कलाधाम लूणिगवसही मंदिर है, जिसका निर्माण वस्तुपाल एवं तेजपाल ने करोड़ो रूपयों की लागत से करवाया था। लूणिगवसही के इस मंदिर के निर्माणकाल में कारीगरों का उत्साह बढ़ानेवाली, श्रेष्ठी तेजपाल की बुद्धिमती पत्नी अनुपमा, जिसने मंदिर के सौंदर्य को शाश्वत और चिरंतन रूप देने के प्रयत्न में प्राणपण से, कारीगरों के अंतर की सूक्ष्मता को उभारते, उन्हें पत्थर से निकलने वाले टुकड़ों के बराबर सोना और चाँदी दान करते, उनकी कार्यक्षमता को बढ़ाते और निखारते देखा है। अनुपमा की प्रेरणा के फलस्वरूप कारीगरों ने पत्थरो में प्राण उंडेले और यह मंदिर स्थापत्य कला के इतिहास में अमर हो गया। अनुपमा की त्याग-भक्ति एवं उदारता की अमर देन से न केवल जैनों का भाल उन्नत हुआ, बल्कि, भारत के कला क्षेत्र को भी जगत-प्रसिद्धि मिली। सुप्रसिद्ध कवि आशाधरजी की पत्नी पद्मावती ने बुलडाना जिले के मेहंकर (मेघंकर) नामक ग्राम के बालाजी मंदिर में जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। राजपूताने की जैन महिलाओं में पोरवाड़वंशी तेजपाल की भार्या सोहड़ादेवी, जैन राजा आशाशाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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