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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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अजमेर के चौहानों में जैनधर्म पोषक एवं भक्त नरेश हुए। इनके राज्यकाल में ११८२ ईस्वी में लाहड़ की पत्नी तोलो ने अन्य तीन श्राविकाओं के साथ मल्लिनाथ की प्रतिमा बनवाई थी। महीपाल देव की सम्मानित माता श्राविका आस्ता ने ११६० ईस्वी में पार्श्व-प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। इनकी प्रतिष्ठा दिल्ली अजमेर के चौहान पथ्वी राज ततीय के समय में हुई थी। इस समय में श्रेष्ठी लोलार्क की तीन पत्नियाँ ललिता, कमलाक्षी और लक्ष्मी हुई थी। ललिता विशेष प्रिय थी, ललिता की प्रेरणा पाकर भगवान् पार्श्वनाथ जिनालय का पुनरुद्धार कर नया जिनालय श्रेष्ठी लोलार्क ने बनाया। उत्तर प्रदेश के असाई खेड़ा (इटावां जिला) नगर में ११७३ ईस्वी में माथरवंशी नारायणसाह की भार्या रूपिणी ने श्रुतपंचमीव्रत के फल को प्रकट करने वाली भविष्यदत्त कथा कवि श्रीधर से लिखवायी थी। दिल्ली के ही तोमर नरेश अनंगपाल ततीय के समय में वील्हा माता के पत्र श्रीधर कवि ने चंद्रप्रभ च की थी। नट्टलसाहू तोमर नरेश का राज्य सेठ था, जिनकी माता साहू जेजा की धर्मपत्नी शीलगुण मंडिता भार्या मेमड़ि थी। बारहवीं शताब्दी की महान श्राविका पाहिनी देवी धन्य है जिन्होंने हेमचंद्र जैसे रत्न को जन्म दिया। जैन साहित्य के सरस्वती
सिद्धहेम व्याकरण" एक ऐसा उच्च कोटि का व्याकरण ग्रंथ है, जिसका नामकरण गुरू और शिष्य के संयुक्त नाम पर हुआ है। सिद्धराज शैव धर्मावलम्बी थे, किंतु आचार्य हेमचंद्र के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जैनों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व पर्युषण तथा अन्य जैनधर्म से जुड़े उत्सवों पर अमारि-घोषणा करवायी। गुरू के आदेशानुरूप सिद्धराज ने अपने राज्य के समस्त जैन मंदिरों पर कनक-कलश चढ़ाये और जिनशासन के प्रसार में आनेवाली बाधाओं को यथा सामर्थ्य दूर किया। एक प्रबल अनुशास्ता होने के साथ-साथ आचार्य हेमचंद्र महान् साहित्यकार भी थे। सिद्धराज की विनंती पर हेमचंद्र ने "सिद्धहेमव्याकरण" की रचना की जिसका योग पाकर गुजरात का साहित्य श्रीसंपन्न हो गया और गुजरात के पाठ्यक्रम में इसे स्थान मिला। सरस्वती का ऐसा शुभ्रवर्ण, शुभ-कांति से दीप्त शिरोधार्य मोती गुजरात में ही पैदा हुआ था। हाथी पर रखे हौदे में उस व्याकरण ग्रंथ को आसीन कर राज्य में उसका प्रवेश करवाया गया था। तीन सौ विद्वानों ने बैठकर उसकी प्रतिलिपियाँ तैयार की थी। आठ विशाल अध्यायों में निर्मित, ३५६६ सूत्रों में निबद्ध इस व्याकरण को साहित्यिक-क्षेत्र में पाणिनी तथा शाकटायन के व्याकरण जैसा ही सम्मान मिला तथा कटक से कश्मीर तक के पुस्तकालयों में इसने प्रतिष्ठा अर्जित की।
___ "त्रिषष्ठिशलाका पुरूष" नामक कति जिसमें तिरसठ (६३) महापुरूषों के जीवन-चरित्र, तत्कालीन सांस्कतिक चेतना और सभ्यता का उत्कर्ष, जैन इतिहास के मानक पुरूषों का सरस काव्यात्मक चित्रण, धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि विविध विषयों की सुंदर विवेचना प्रस्तुत की गई है, जो इतिहास प्रेमी पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। साढ़े तीन करोड़ श्लोकों से भी अधिक श्लोकों की रचना कर आचार्य हेमचंद्र ने गुजरात के वाड्.मय के प्रशस्त ललाट पर जैनों का नाम सदा के लिए अंकित कर दिया। मोहनलाल दलीचंद देसाई लिखते हैं कि जैन आचार्यों द्वारा रचित साहित्य को शेष कर दिया जाये तो गुजरात का साहित्य अत्यंत क्षुद्र दिखाई देगा।
प्रभावक चरित्र के उल्लेखानुसार समद्ध गुर्जर प्रदेश में चालुक्यराज कर्ण के शासनकाल में धंधुका नामक सुंदर नगर में चाचिंग नामक मोढ़ जाति का श्रेष्ठी रहता था। श्रेष्ठी चाचिंग की धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था जो धर्मनिष्ठा, पतिपरायणा एवं रूप-गुण संपन्ना श्राविकारत्न थी। आचार्य हेमचंद्र जी ने गुर्जर राज्य के ग्रंथागार में सूत्र वत्ति तथा अनेकार्थ बोधिका नाम माला सहित “सिद्ध-हेम व्याकरण" नामक व्याकरण के नवीन ग्रंथ की रचना की। चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह आचार्य हेमचंद्रजी के प्रति अपार श्रद्धा भक्ति रखता था। आचार्य श्री हेमचंद्रजी ने साहित्य सजन के क्षेत्र में क्रांति लाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। आपकी प्रेरणा से सिद्धराज जयसिंह और परमार्हत कुमारपाल ने सुदूरस्थ प्रान्तों से प्रचुर मात्रा में प्राचीन ग्रंथ रत्नों को मंगवाकर न केवल गुजरात के ज्ञान भण्डारों को ही समद्ध किया था। अपितु व्याकरण, न्याय, साहित्य, योग आदि अनेक विषयों के अभिनव ग्रंथरत्नों के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया था। गुर्जर राज्य के निवासियों में राष्ट्र, साहित्य, सदाचार, नैतिकता, पुरातन भारतीय संस्कृति, साहसिकता, कर्तव्य-निष्ठा, कला आदि के प्रति जो विशिष्ट प्रेम आज भी दष्टिगोचर होता है, उसके पीछे वस्तुतः निर्विवाद रूप से आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि जी की प्रेरणाओं, अमोघ उपदेशों और उनके द्वारा सिद्धराज जयसिंह एवं महाराज कुमारपाल को समय-समय पर दी गई सत्प्रेरणाओं एवं सत् परामर्शो का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि जी, चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह, परमार्हत महाराजा कुमारपाल इन तीनों ही युगपुरूषों के जीवन वस्तुतः एक दूसरे के पूरक रहे हैं।
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