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पूर्व पीठिका
अ. अतिचार :
जीवित रहने की इच्छा, सेवा 'शुश्रूषा के अभाव में शीघ्र मरने की इच्छा, मित्रों के प्रति अनुराग जागत करना, भोगे हुए सुखों का पुनः पुनः स्मरण करना, तपश्चर्या का फल, भोग सामग्री के रूप में चाहना अर्थात् निदान करना इस व्रत के दोष हैं।
१.६ श्राविका की दैनिक चर्या :
श्रावक या श्राविका अपना सर्वांगीण विकास निर्लिप्त भाव से स्वकर्तव्य का संपादन करते हुए घर में रहकर भी कर सकता है। अतः उसे आत्म-शुद्धि के लिए, कर्मों का संवर व निर्जरा करने के लिए एवं शुभ कर्म संचय करने के लिए छ: कार्य प्रतिदिन करने चाहिएँ यथा :
१. देव पूजा - पूजा के दो प्रकार हैं (क) भाव पूजा और (ख) द्रव्य पूजा । अष्ट द्रव्यों से वीतराग परमात्मा की पूजा करना द्रव्य पूजा है। बिना द्रव्य के केवल सर्वज्ञदेव के गुणों का चिन्तन और मनन करना "भाव-पूजा" है। इससे सम्यगदर्शन गुण की विशुद्धि होती है तथा वीतरागता की प्रेरणा मिलती है।
२. गुरु उपासना - जीवन में संस्कारों का प्रारम्भ निग्रंथ त्यागी, गुरु या गुरुणी के चरणों की उपासना से ही संभव है। गुरु उपासना से प्राणी को स्व पर के भेद-विज्ञान की उपलब्धि होती है। अतः श्रावक या श्राविका का प्रतिदिन गुरु उपासना या गुरु भक्ति करना आवश्यक है।
३. स्वाध्याय - स्वाध्याय अर्थात् स्व आत्मा का अध्ययन, चिन्तन और मनन । स्वाध्याय से व्यक्ति रत्नत्रय की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। बुद्धिबल एवं आत्मबल का विकास होता है और आत्म तत्व की विशुद्धि होती है।
४. संयम - सावधानी से कार्य करना ताकि जीवों की हत्या न हो तथा अपनी इन्द्रियों और मन को विषय वासनाओं से रोकना व दूर हटाना संयम है। मन, वचन, काया की अशुभ प्रवत्तियों पर नियंत्रण रखना संयम हैं।
५. तप - इच्छा निरोध को “तप" कहते हैं। तप से आत्मा शुद्ध होती है। अहंकार और ममकार का त्याग भी तप के द्वारा ही संभव है। श्रावक या श्राविका को रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए शक्ति के अनुसार तप करना चाहिए।
६. दान - संपत्ति की सार्थकता दान में ही है। श्रावक या श्राविका का व्रती पुरुषों को श्रद्धा, भक्ति, विनय पूर्वक आहार, शास्त्र आदि उपकरण देना तथा दीन दुखी, दरिद्र, अनाथ, अपाहिज जीवों को दया भाव से भोजन, वस्त्र आदि देकर उनका दुःख दूर करना "दान" है।
७. प्रतिमा - प्रतिमा अपने आध्यात्मिक विकास के लिए श्राविकाएं शास्त्र में बतायी गयी प्रतिमाओं या सोपानों पर आरोहण कर अपना चारित्रिक विकास करती जाती हैं और इस तरह वह मुनि बनने लायक या मुनि जीवन के निकट पहुंचने की अधिकारिणी हो जाती हैं। 'प्रतिमा' का अर्थ प्रतिज्ञा विशेष या व्रत विशेष होता है। (अ) प्रतिमा के ११ भेद हैं यथा - १. दर्शन प्रतिमा
२. व्रत प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा
४. पौषध प्रतिमा ५. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा ६. ब्रह्मचर्य प्रतिमा ७. सचित्त विरत प्रतिमा ८. आरम्भ त्याग प्रतिमा ६. परिग्रह त्याग प्रतिमा १०. अनुमति त्याग प्रतिमा
११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा श्राविका का तीसरा आधार पक्ष चर्या साधन है। हिंसा की शुद्धि के तीन प्ररूपित प्रकार हैं : वीतराग एवं सर्वज्ञ परमात्मा को देव, निग्रंथ मुनि को गुरु ओर जिन दयामय धर्म को ही धर्म मानना पक्ष है, ऐसे पक्ष को
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