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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास झील आदि सुखाना, व्यभिचार आदि के लिए वेश्याएँ आदि रखना। इन पन्द्रह व्यवसायों में त्रस जीवों का घात, सामाजिक असुरक्षा तथा पर्यावरण संकट से संस्कृति का विनाश किसी न किसी रूप में होता है, अतः श्रावक श्राविकाओं के लिए ऐसे व्यापार त्याज्य हैं। १.५.१८ अनर्थदण्डविरमणव्रत : निष्प्रयोजन किसी की हिंसा करना अनर्थदण्ड है। निरर्थक हिंसक कार्य करना, हिंसात्मक शस्त्रों का आदान-प्रदान या संग्रह करना, पाप कर्म करने का उपदेश देना एवं कुमार्ग की ओर प्रेरित करना इन सब का त्याग करना अनर्थदण्डविरमणव्रत है। अ. अतिचार : हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना, शरीर से विकृत चेष्टा करना, निरर्थक बकवास करना, उपभोग परिभोग की वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना व हिंसक अस्त्र-शस्त्र का संग्रह करना इस व्रत के दोष या अतिचार हैं। इस प्रकार अनर्थदण्डविरमण व्रत अनर्थकारी हिंसा पर रोक लगाता है। निरर्थक पानी फैंकना, राह चलते वनस्पति तोड़ना, गलत शारीरिक चेष्टायें करना, इस व्रत के दोष माने गये हैं। ब. चार शिक्षाव्रत व्यक्ति के आत्मिक उत्थान के द्योतक है-१. सामायिक व्रत २. देशावकाशिक व्रत ३. पौषधोपवास व्रत और ४. अतिथिसंविभाग व्रत। १.५.१६ सामायिक व्रत : एक निश्चित समय के लिए साधु तुल्य आचरण करना सामायिक व्रत है। १.५.२० देशावकाशिक व्रत : सीमा मर्यादा का संकोच व सीमा के बाहर के आश्रव सेवन का त्याग करना देशावकाशिक व्रत है। १.५.२१.२२ पौषध व्रत एवं अतिथिसंविभाग व्रत४.५५ ३० पूर्ण उपवास के साथ धर्म स्थान में रहकर सम्यक् आराधना करना पौषध व्रत है। सुपात्र को यथाशक्ति निर्दोष आहार प्रदान करना अतिथिसंविभाग व्रत है। ये चारों शिक्षाव्रत आत्मा के आध्यात्मिक विकास से संबंधित हैं, इनसे मानव सेवा, सहभागिता, सहयोग, अभावग्रस्त के प्रति सामाजिक कर्तव्य का बोध प्राप्त होता है। इस प्रकार इन बारह व्रतों की संक्षेप में चर्चा करने से स्पष्ट है कि ये बारह व्रत व्यक्ति के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं। ये व्रत व्यक्ति को व्यक्ति के प्रति अनुराग सहयोग-सहकार एवं बन्धुत्व की भावना को उत्पन्न करते हैं। ये व्यक्ति को सामाजिक बनाते हैं। समाज में गृहस्थ वर्ग की भूमिका वैसे भी दोहरी है। एक ओर वह स्वयं साधना करता है दूसरी ओर पूर्णसाधना करने वाले साधु-साध्वियों की साधना का सहायक एवं पर्यवेक्षक भी है। अतः श्रावक अपने कर्तव्य को पहचानें और इन व्रतों की उपयोगिता को समझ कर जीवन में अपनाने का प्रयास करें तो निश्चित ही हम सामाजिक सौहार्दता को ला सकेंगे, जिसकी हमें अभी भी प्रतीक्षा १.५.२३ संलेखना: जीवन के अन्तिम समय में तप आदि की आराधना करना संलेखना कहलाता है। संलेखना साधना की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा देह एवं कषायादि को कृश किया जाता है। यह सम्यक् आलोचनायुक्त देह विसर्जन की साधना है। संलेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचार-शास्त्र ने समाधिमरण या पंडितमरण कहा है. इसे संथारा भी कहते हैं। संथारा अर्थात संस्तारक. इसका अर्थ बिछौना होता है। चूंकि इसमें व्यक्ति आहारादि का त्याग कर बिछौना बिछाकर शांत चित्त से देह त्याग पर्यन्त एक स्थान पर लेटा रहता है। इस प्रकार क्रोधादि कषायों से रहित होकर प्रसन्नचित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना ही इस व्रत का महान उद्देश्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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