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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
रखने वाला श्रावक पाक्षिक कहलाता है। ऐसे श्रावक की आत्मा में मैत्री, प्रमोद, करूणा व माध्यस्थ्यवृत्ति होती है। जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन करना तथा श्रावक के बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना "निष्ठा" है। इस प्रकार का आचरण करने वाले गृहस्थ को "नैष्ठिक श्रावक" कहते हैं। जीवन के अन्त में आहारादि का सर्वथा त्याग करना मोक्ष का साधन है। इस प्रकार के साधन को अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्मशोधन करने वाले गृहस्थ को साधक श्रावक कहते हैं |
आचार्य हरिभद्र ने धर्म बिन्दु ग्रन्थ में श्रावक द्वारा व्रत ग्रहण करने से पूर्व चारित्र को सुस्थिर करने के लिए ३५ नियमों का विधान किया हैं। इसमें न्याय पूर्वक धन कमाना, नैतिकता पूर्वक जीवन यापन करना आदि गृहस्थ के सामान्य धर्म की शिक्षा दी है। साथ ही विशिष्ट साधना के लिए जो व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार नियम, व्रत आदि ग्रहण करता है, वे विशेष गुण या धर्म कहे जाते हैं। ये विशिष्ट गृहस्थ के लिए हैं किन्तु दोनों ही परस्पर अविरोधी हैं ,सापेक्ष हैं। विशेष धर्म का पालक गृहस्थ से सदगृहस्थ होता हुआ ऊपर उठता है।
सामान्य धर्म पैंतीस प्रकार का है और विशेष धर्म बारह प्रकार का है। मनीषियों ने गृहस्थ के उसकी अन्तर्दृष्टि के आधार पर दो भेद किये हैं, सामान्य और विशेष । सामान्य मार्गानुसारी और विशेष श्रावक । श्रावक की दृष्टि सम्यक् और निर्मल होती है। वह तत्वज्ञ होता है, अतः मार्गानुसारी होता है। ये गृही के सामान्य धर्म कहे गये हैं। इनमें आध्यात्मिकता कम और व्यवहारिकता अधिक होती है। मार्गानुसारी से श्रावक या श्राविका का स्तर ऊँचा होता है।
१.७ आगम में श्राविका के अष्टमूल गुणों की चर्चा :
मूलगुण अर्थात मुख्य गुण, जिनको धारण किये बिना श्रावकपना ही संभव न हो। जिस प्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष का खड़ा रहना संभव नहीं है, उसी प्रकार मूलगुणों के बिना श्रावकपना भी संभव नहीं है। ये मुख्य रूप से आठ हैं-अतः इन्हें अष्ट मूलगुण कहते हैं। वे आठ मूलगुण हैं मद्य मांस मधु का तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग, क्योंकि ये त्रस जीव से युक्त होते हैं।६०
___ चामुण्डराय ने स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से मुक्त होना तथा जुआं, मांस और मद्य से विरत होना गृहस्थ के ये आठ मूल गुण माने हैं ।६१
भूधरशतक में कविवर भूधरदासजी कहते हैं मद्य-मांस मधु व पांच उदुंबर फलों के त्याग के अतिरिक्त, जुआ खेलना, शिकार खेलना, चोरी करना, 'पर-स्त्री गमन करना, वेश्यागमन करना इत्यादि सप्त कुव्यसनों का त्याग भी श्रावक या श्राविका का प्राथमिक कर्तव्य है।६२
१.५ जैन धर्म में नारी जाति का अवदान : एक सामान्य विवेचन
नारी मानव जाति के इतिहास का वह प्रथम स्वर्णपष्ठ है जहां से मानव जाति के गरिमामय इतिहास का शुभारम्भ होता है। मर्यादाओं के अम्लान पुष्पों को, अंजली में लिए, अकंप गति से चलना नारीसमाज का सर्वोपरि श्रृंगार है। यह माता, भगिनी, पत्नी, दुहिता आदि के रूप में युगों युगों से मानव जाति के लिए नैतिक संबल रही है। देहरी पर रखा हुआ दीपक जैसे घर और बाहर दोनों ओर प्रकाश विकीर्ण करता है, उसी प्रकार सुशिक्षिता, सुशीला, सन्नारी परिवार और समाज को पवित्र, धन्य और यशस्वी कर देती है। नारी की शक्ति से समाज सदा उपकृत और उसकी कर्मण्यता से गौरवान्वित होता रहा है। __जैन तीर्थंकरों के द्वारा चतुर्विध संघ की स्थापना में नारी को पुरुष के समान ही स्थान दिया जाता रहा है। तीर्थंकरों द्वारा स्थापित तीर्थ में साधु साध्वी, श्रावक और श्राविकायें चारों ही वर्ग होते हैं।
ब्राह्मी और सुन्दरी न केवल लिपि और गणित विद्या की प्रथम अध्येता बनी, अपितु मान के हाथी पर आरूढ़ बाहुबली को प्रतिबोधित कर मोक्ष प्राप्ति में सहायक भी बनी। राजीमति ने न केवल अपने शील की रक्षा की अपितु स्थनेमि को भी धर्म मार्ग में स्थिर किया। इस प्रकार नारी ने अपनी प्रतिभा और तेजोमय व्यक्तित्व से समाज में अपना अपूर्व स्थान बनाया है। तत्ववेत्ता एवं दार्शनिक नारी के रूप में 'जयन्ति' श्राविका की चर्चा भगवती सूत्र में है। जयन्ति श्राविका राजा उदायन की बूआ और महासती • मृगावती की ननंद थी तथा भगवान महावीर की परम भक्त थी। भगवती सूत्र में जयन्ति श्राविका द्वारा पूछे गये प्रश्न उसकी ज्ञान
और दर्शन के प्रति गहन रूचि के परिचायक हैं। सुलसा जैसी दृढ़प्रतिज्ञ श्राविका का वर्णन भी आगम में हैं तो भद्रा जैसी
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