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________________ पूर्व पीठिका आत्म-निर्भर साधिका का भी वर्णन है, जिसने पति के स्वर्गवास के पश्चात् देश-विदेश में व्यापार का बखूबी संचालन कर परिवार का सात्विक रीति से भरण-पोषण किया था। महाराजा श्रोणिक को जैन धर्मानुयायी बनाने का पूरा श्रेय महारानी चेलना को जाता है, जो राजा चेटक की पुत्री और कुल परम्परा से ही जैन धर्मानयायिनी थीं। जैन संघ में नारी कई वर्गों में विभक्त थीं। पहले प्रकार के अन्तर्गत व्रतधारी साधिकाएं ६३ और दूसरे वर्ग में सामान्य गृहीधर्म का पालनकरने वाली उपासिकाएं थीं।६४ कोशा वेश्या ने अपने श्राविका व्रत में दढ़ रहते हुए स्थूलिभद्र के गुरु भाई को संयम में पुनः स्थिर किया था। महारानी कमलावती ने अपने पति इक्षुकार राजा को अपरिग्रह का उपदेश देकर त्याग म किया था। राजा दधिवाहन की पत्नी महासती चंदना की माता धारिणी ने शील रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिये थे। महारानी देवकी ने अपने गृह पर पधारे छह मुनिराजों को आहार दान देकर जैन सन्तों के प्रति अपनी श्रद्धाभक्ति का परिचय दिया था। __ इसी क्रम में भ० महावीर की कुछ और प्रमुख उपासिकाओं का भी उल्लेख किया जा सकता है। (१) आनन्द की पत्नी शिवादेवी (२) सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा (३) नन्दिनीपिता की पत्नी अश्विनी (४) चुलनी पिता की पत्नी श्यामा (५) कामदेव की पत्नी भद्रा, आदि उपासिकाओं का नाम जैन आगम उपासकदशांग में आये हैं। भगवान महावीर के सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में इन महिलाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया था। शील के प्रभाव से सुभद्रा ने चंपा के द्वार खोल दिये थे। ईसा पूर्व की तीसरी-चौथी शताब्दी, ईस्वी सन की छठी शताब्दी के इतिहास में गंगवंश की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक उपाय किये थे। ये रानियां मन्दिरों की व्यवस्था करती, नये मन्दिर और तालाब बनवाती एवं धार्मिक कार्यों के लिए दान की व्यवस्था करती थीं।६५ इस तरह से आगमों तथा आगमिक परंपरा के साहित्य में यत्र-तत्र विदुषी एवं तप त्यागमयी श्राविकाओं के अनेक वर्णन हैं। गृहस्थ धर्म की चर्चा शास्त्रों में श्रावक धर्म के नाम से मिलती है। सभी आत्मायें शुद्ध धर्म का पालन कर सिद्ध बुद्ध एवं मुक्त हो सकती है। अतः शास्त्रकार उन पुरुष और स्त्रियों के गृहस्थ धर्म के आचार में विशेष भिन्नता नहीं मानते थे। साधना का सम्बन्ध आत्मा से है और आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में हमारा उद्देश्य एक श्राविका के रूप में नारी जाति का जैन संघ को क्या अवदान रहा है, उसे ऐतिहासिक कालक्रम में प्रस्तुत करना है। अ. विभिन्न क्षेत्रों में नारी की भूमिका :१. कुटुम्ब के संचालन में नारी का अवदान। सामाजिक क्षेत्र में नारी का योगदान। आर्थिक क्षेत्र में नारी का योगदान। ४. कला एवं साहित्य में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका। ५. राजनीतिक क्षेत्र में उनका अवदान। जैन ग्रन्थ इसिभासियाई में नारी के महत्व और अवदान को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह सुवासित मधुर जल के सदश्य है, विकसित कमलिनी के तुल्य है। व्याल से लिपटी मालती लता के समान है। वह स्वर्ण की गुफा है, जिसमें सिंह प्रसुप्त है। दूसरों के संहार के लिए वह विषमिश्रित गंध पुटिका है। वह नदी की निर्मल जल धारा है किंतु उसके बीच में भयंकर भंवर भी हैं जो प्राणों को हरण करने वाले हैं। वह मत्त बना देने वाली मदिरा तो सुंदर सुयोग्य कन्या के सदश्य भी है। संसार में नारी को सद्गुणों की प्रकाशक जानना चाहिए। १.६ नारी जाति का मूल्यांकन : सदियों से भारत के प्रायः सभी वर्गों और धर्मों में स्त्री की उपेक्षा होती रही है। उसे पुरुष से निम्न समझा गया है। अनेक सामाजिक सुविधाएँ और अधिकार जो पुरुष को प्राप्त हैं स्त्री उनसे वंचित है। आज भी रूढ़ीवादी कुछ लोग स्त्री जाति को पुरुषों की काम वासना की तृप्ति का साधन या सन्तानोत्पत्ति की मशीन समझते हैं। उसको अबला कहा जाता है और अनेक दुर्गुण उसके सिर पर लादे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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