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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
ॐ चतुर्थ अध्याय
महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
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४. १ महावीरोत्तर कालीन धार्मिक एवं राजनैतिक स्थिति :
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भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् भी भगवान महावीर का धर्म-संघ भारत के विभिन्न धर्म संघों में सदा से सुविशाल, प्रमुख, तथा बहुजन सम्मत रहा हैं। निर्वाणोत्तर काल के एक हजार वर्ष के इतिहास का अवलोकन करने पर यह विश्वास करने के लिए अनेक प्रमाण उपलब्ध होते है कि जैन धर्म सूदूरवर्ती देशों में फैला, फला-फूला और एक लम्बे समय तक उत्तरोत्तर अभिवद्धि को प्राप्त होता रहा है। इसके पीछे कुछ कारण है, यथा; सर्वज्ञ जिन द्वारा प्ररूपित धर्म होने से इस धर्म संघ का संविधान सभी दष्टियों से सुगठित और सर्वांगपूर्ण था। अनुशासन, संगठन की स्थिरता, सुव्यवस्था, कुशलतापूर्वक संघ के संचालन की विधि इस धर्मसंघ की अप्रतिम विशेषताएँ थी। दूसरा मुख्य कारण था इस धर्म का विश्व बंधुत्व का महान् सिद्धान्त, जिसमें प्राणी मात्र के कल्याण की सच्ची भावना सन्निहित थी । इन सबसे बढ़कर इस धर्म संघ की घोरातिघोर संकटों में भी रक्षा करने वाला था इस धर्म संघ के कर्णधार महान् आचार्यों का त्याग, तपोपूत अपरिमेय आत्मबल । ये तीन ऐसे प्रमुख कारण थे, जिसने जैन धर्म पर समय-समय पर आये संकटों को छिन्न भिन्न कर प्रचण्ड सूर्य की तरह अपने अलौकिक ज्ञानालोक से जन-जन के मंदिर और मुक्ति-पथ को प्रकाशित करता रहा है।
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ई. पू. ५२७. ५०७ में उड़देश के राजा यम ने सुधर्मा स्वामी से दीक्षा ग्रहण की। उन्हीं के साथ महारानी धनवती ने भी श्राविका के व्रत ग्रहण किये थे । धनवती की अपूर्व धर्मनिष्ठा के प्रभाव से संपूर्ण परिवार सहित उड़देश की समस्त प्रजा जैन धर्मानुयायिनी बन गई थी। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु तक जैन धर्मसंघ का एक सर्वांगपूर्ण एवं अतिविशाल संविधान विद्यमान था। उस संविधान में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका वर्ग के लिए ही नहीं किंतु संघ के प्रति निष्ठा रखने वाले साधारण से साधारण सदस्य के कर्तव्यों एवं कार्यकलापों के लिए मार्गदर्शक विधान था। उसमें निर्दिष्ट विधि विधानों के अनुसार इस धर्म संघ का प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करता था ।
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जैन मतानुसार आचार्य जंबू अंतिम केवलज्ञानी हुए थे। जंबूस्वामी ने जब दीक्षा अंगीकार की तब मगध पर श्रेणिक पुत्र कूणिक एवं अवंती पर चंद्रप्रद्योत पुत्र पालक का शासन था। जंबू के शासनकाल में मगध के राजा उदायी जैन धर्म के प्रति निष्ठावान थे। उदायी के स्वर्गवास वी. नि. ६० के बाद उनकी संतान न होने से शिशुनाग वंशी शासकों की सत्ता नंद के सम्यक् संचालन में आ गई। अवंती नरेश पालक के अवंतिवर्द्धन और राष्ट्रवर्धन ये दो पुत्र थे। राष्ट्रवर्द्धन की रूपवती रानी धारिणी ने साध्वी दीक्षा अंगीकार की। राष्ट्रवर्द्धन के पुत्र अवंति सेन को राज्य सौंपकर अवंतिवर्द्धन दीक्षित हुए ।
राष्ट्रवर्द्धन के पुत्र मणिभद्र के हाथों में कौशांबी की सत्ता थी। इस प्रकार मगध, अवंति और कौशांबी तीनों राजवंशों की भगवान् महावीर के संघ के प्रति गहरी आस्था थी। आचार्य प्रभव एवं आचार्य शय्यंभव (वी. नि. ६०) के समय नंदवंश चल रहा था। आचार्य संभूति विजय के आचार्य काल में नंद राज्य शकडाल के पुत्र श्रीयक, एवं उनकी सात पुत्रियाँ यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा ने वि० पू० ३१७ (वी. नि. १५३ ) में आचार्य संभूति विजय के पास दीक्षा धारण की थी । स्थूलभद्र की दीक्षा इनसे ७ वर्ष पूर्व हो चुकी थी, ये शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र थे। मुनि के दिव्य तपोमय जीवन से प्रभावित होकर कोशा गणिका
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