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________________ 192 महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती दढ़व्रतधारिणी श्राविका बनी । ई० पू० ३१२ में ऐतिहासिक कालक्रम की दष्टि से नवमें नंद के शासनकाल में नंद साम्राज्य का पतन हुआ। आचार्य संभूति विजय के प्रभाव से नंद राजवंश में अध्यात्म संस्कार पल्लवित हुए । आचार्य स्थूलभद्र के शासनकाल में भी नंद साम्राज्य शकडाल परिवार के प्रति कृतज्ञ था । स्थूलभद्र के बाद महागिरि तथा सुहस्ति आचार्य हुए। तत्पश्चात् आचार्य बलिस्सह के समय सम्राट् खारवेल हुए । हिमवंत स्थविरावली के अनुसार सम्राट् खारवेल के द्वारा आयोजित कुमारगिरि पर्वत पर महाश्रमण सम्मेलन में आचार्य बलिस्सह उपस्थित थे। इसी प्रसंग पर उन्होंने विद्यानुप्रवाद पूर्व से अंगविज्जा जैसे शास्त्र की रचना की थी । सम्राट् खारवेल द्वारा आयोजित महाश्रमण सम्मेलन का काल वी. नि. ३००. ३३० ( ई० पू० १६७ वि.पू. १४०) तक का संभव हैं। सम्राट् खारवेल का वी. नि. ३३० में स्वर्गवास हो गया था। आचार्य बलिस्सह के समय में मगध पर मौर्य वंश का शासन था। इस राज्य का प्रथम सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य था, अंतिम सम्राट् बहद्रथ था। मौर्य सम्राट् अंधिकांश जैनी या जैन धर्म के समर्थक रहे है। मौर्य राज्य का सुप्रसिद्ध आमात्य भी जैन था । ४ आचार्य सुस्थित एवं आचार्य सुप्रतिबुद्ध ने भुवनेश्वर के निकट स्थित कुमारगिरि पर्वत पर ही कठोर तप की साधना की थी । सम्राट खारवेल की रानी ने उदयगिरि एवं खण्डगिरि पर श्रमणों की साधना के लिए जैन गुफाओं का निर्माण करवाया था। भिक्षुराज खारवेल ने सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध दोनों मुनियों का विशेष सम्मान किया था । आचार्य कालक जैन इतिहास प्रसिद्ध अवंती नरेश गर्दभिल्ल के समकालीन थे। आचार्य कालक ने अपनी साध्वी बहन सरस्वती को शक्तिशाली नरेश गर्दभिल्ल से छुड़ाने के लिए विदेशी सत्ता शकों को (संभवतः सिथियन जाति के लोग थे) अपने विद्याबल से प्रभावित कर उन्हें भारत में लाये थे। उनके सहयोग से तथा अपने विद्याबल के योग से बहन सरस्वती को गर्दभिल्ल के पंजों से छुड़ाया एवं अन्यायी शासक गर्दभिल्ल को पदच्युत कर दिया। क्रांतिकारी कालक वी. नि. की पूवीं शती (वि. की प्रथम शती) के विद्वान् आचार्य थे। गर्दभिल्ल के पदच्युत की घटना का समय वी. नि. ४६६ माना गया है। प्रतिष्ठानपुर में चतुर्थी को संवत्सरी मनाने का प्रसंग इन्हीं के समक्ष उपस्थित हुआ था। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार ई. पू. की छठी शती में जैन एवं बौद्ध दोनों धर्म का उद्भव, स्थापना एवं प्रसार हुआ । इतिहासविज्ञों के अनुसार बौद्धधर्म को विश्वधर्म के उत्कर्ष में ले जाने का श्रेय जाता है ई. पू. तीसरी शताब्दी के सम्राट् अशोक को जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। बौद्ध अनुश्रुति में बौद्ध धर्म के लिए अशोक के किये गये जितने कार्यों का उल्लेख है, उससे कई बढ़कर जैन जनश्रुति में जैनधर्म के लिए राजा सम्प्रति के कार्यों का उल्लेख है। किंतु राजा संप्रति के नाम और कार्य के विजयी स्मारक उपलब्ध नहीं है जो, विश्व के सामने अशोक स्तंभ की तरह भारत का परिचय चिन्ह हो । जैन इतिहास वेत्ता मुनि श्री कांतिसागरजी के अनुसार मौर्य सम्राट् संप्रति ने जैन संस्कृति के प्रचार हेतु न सिर्फ अपने पुत्रों बल्कि अपनी पुत्रियों को भी साध्वी वेश में सामंतों के साथ सुदूर देशों में भेजा । सम्प्रति के आग्रह से उनके गुरु आचार्य सुहस्ती ने श्रमणों को अनार्यों की भूमि पर भेजना स्वीकार किया। विन्सेण्ट स्मिथ के अनुसार संप्रति ने अरब ईरान जैसे इस्लाम धर्मी देशों में भी जैन धर्म प्रतिष्ठित किया । कतिपय जैन धर्मग्रंथ तो यह बताते हैं कि सम्प्रति ने इतने जिनमंदिरों का निर्माण करवाया कि भारत के आर्य-अनार्य प्रदेशों की भूमि मंदिरमय हो गई। वस्तुतः अशोक और सम्प्रति, दोनों के कार्यों से भारतीय संस्कृति विश्व - संस्कृति बन गई और आर्यावर्त का आध्यात्मिक प्रभाव भारत की सीमाओं से आगे, मरूस्थलों, पर्वतों, सिंधुओं को पार करता दूसरे देशों पर छा गया। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन का शोध यह निष्कर्ष भी सामने रखता है कि जिन अभिलेखों में "देवानांपियस्स पियदस्सिन लाजा" देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा उनके अंकित कराये जाने का उल्लेख है, संभव है वे अशोक के न होकर संप्रति के हो, क्योंकि "देवानांप्रिय" शब्द जैन परंपरा का शब्द है जो संभवतः संप्रति के लिए प्रयुक्त हुआ होगा ।" सम्राट् सम्प्रति के समकक्ष खड़े जैन इतिहास की परंपरा के एक ओर दीप्तिमान नक्षत्र हुए है ई. पू. द्वितीय शताब्दी के सम्राट् खारवेल । प्राचीन भारत के अब तक उपलब्ध सारे शिलालेखों के मध्य स्फटिक की आभा लिए अद्वितीय ही नहीं, सर्वोपरि है। विद्वानों के शोध एवं आकर्षण का केन्द्रबिंदु है खारवेल का शिलालेख । यह शिलालेख वर्तमान उड़ीसा - राज्य के पुरी जिले में राजधानी भुनवेश्वर से तीन मील की दूरी पर स्थित, खण्डगिरि पर्वत के उदयगिरि नामक उत्तरी भाग पर बने हाथीगुम्फा नाम के एक प्राचीन तथा विशाल गुहा मंदिर के अग्रभाग तथा छत पर सत्रह पंक्तियों में जिनकी भाषा अर्धमागधी तथा जैन प्राकृत - मिश्रित अपभ्रंश है और लगभग चौरासी वर्ग फीट के विस्तार में उत्कीर्ण है । लेख की लिपि ब्राह्मी है। स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, अशोक वक्ष तथा मुकुट जैसे विविध जैन मंगल प्रतीकों से युक्त इस अभिलेख का प्रारंभ अर्हतो एवं सिद्धों की वंदना से किया गया है। सम्राट् खारवेल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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