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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
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जैनधर्म की उस प्राचीन निर्ग्रथ परम्परा के साक्ष्य है जिनके वंश - सूर्य वैशाली गणाध्यक्ष महाराजा चेटक थे। चेटक के पुत्र शोभनराय की राजपरंपरा में खारवेल का नाम अंकित है। यह खारवेल का प्रभाव था कि उनके शासनकाल में जैन धर्म कलिंग का राष्ट्रधर्म बन गया और शताब्दियों तक उसने अपना स्थायित्व बनाये रखा। जिनालयों के निर्माण और जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार के साथ सभी धर्मों को सम्मान और उनके सर्वदा बने रहने की भावना खारवेल के व्यक्तित्व को सर्वथा अलग, एकाकी, आकाशीय साम्राज्य में उगने वाले ध्रुवतारे की महत्ता प्रदान करती है ।
भगवान महावीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी के प्रथम चरण में राजा खारवेल ने आगम साहित्य को सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित करने के लिए एक परिषद् का आयोजन किया जिसमें आचार्य बलिस्सह, आचार्य सुस्थित की परंपरा के पाँच सौ श्रमण, पोइणी आदि तीन सौ श्रमणियाँ तथा पूर्णमित्रा आदि सात सौ श्राविकाओं ने भाग लिया। यह सम्मेलन कुमारगिरि पर्वत पर संपन्न हुआ। भिक्खुराय खारवेल की प्रार्थना पर उन स्थविर श्रमणों एवं श्रमणियों ने अवशिष्ट जिन प्रवचन को सर्वसम्मत स्वरूप में भोजपत्र, ताड़पत्र तथा वल्कल आदि पर लिखकर उपदिष्ट द्वादशांगी के रक्षक बने । राजा खारवेल की रानी ने श्रमणों के आवास के लिए उदयगिरि एवं खण्डगिरि पर गुफाओं का निर्माण करवाया था। उसके मन में जिनभक्ति एवं साधु-साध्वियों के प्रति अत्यंत आदर भाव का परिचय इसके द्वारा प्रतिभासित होता है । अतः जैन धर्म के इतिहास के लिए यह शिलालेख जिसमें सम्मेलन का वर्णन है अत्यंत मूल्यवान् है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के उपरांत मौखिक द्वार से प्रवाहित चले आए आगमश्रुत को पुस्तकारूढ़ करने तथा पुस्तक साहित्य का प्रणयन करने के लिए चलाये गये सरस्वती आंदोलन का प्रारंभ इत्यादि तथ्यों का इस लेख से समर्थन होता है। इस सम्मेलन का महत्वपूर्ण तथ्य है साध्वियों तथा श्राविकाओं का उपस्थित होना। अंग साहित्य की सेवा करने का उन्हें भी समान अवसर प्राप्त हुआ था। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि, उस समय की साध्वियाँ तथा श्राविकाएं ज्ञान गार्भित थी एवं साहित्य सेवा में उनका भी महत्वपूर्ण योगदान था ।
कलिंग देश के नरेश खारवेल के शासनकाल में ही ( ई. पू. १६६) मगध नरेशों ने (नंदराजा) कलिंग पर चढ़ाई की और वहाँ पर स्थित भगवान् आदिनाथ की विशालकाय प्रतिमा को मगध देश में ले गए थे । खारवेल के लेख से यह स्पष्ट होता है कि इस घटना के कुछ वर्ष पश्चात् कलिंग नरेश खारवेल ने पुनः मगध पर चढ़ाई करके विजय पाकर उस पावन प्रतिमा को वापिस कलिंग में ले आया था। इस महत्वपूर्ण विजय से प्रसन्न होकर खारवेल नरेश ने बहद् सम्मेलन बुलाया, जिसमें भारत के सभी प्रान्तों के नपगणों ने भाग लिया। दक्षिण भारत के तमिल प्रांत के पाण्ड्य जनपद के नरेश जो जैन धर्मी था, अपने परिवार सहित जाकर उस ऋषभदेव के प्रतिमा की वंदना की थी । "नालिदियर" तमिल ग्रंथ की रचना के संबंध में कहा जाता है कि उत्तर भारत के आठ हजार साधु पुनः उत्तर भारत लौटना चाहते थे परन्तु पाण्ड्य उन्हें वही बसाना चाहते थे । रात्रि में लौटते समय प्रत्येक साधु ने एक-एक ताड़पत्र पर एक-एक पद लिखकर रख दिया । इन्हीं को एकत्रित कर "नालिदियर" ग्रंथ का संकलन हुआ । ई० पू० चतुर्थ शताब्दी (ई० पू० ३४५) चंद्रगुप्त का जन्म समय का युग है जो भारतवर्ष के सुचारू रूप से व्यवस्थित राजनैतिक इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है । अनेक मत मतान्तरों के बाद इतिहासज्ञों ने एक मत होकर स्वीकार किया है कि चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्मावलम्बी थे। चंद्रगुप्त के जैन होने के इतने अकाट्य प्रमाण मिले हैं कि प्रसिद्ध इतिहासकार सर विंसेण्ट स्मिथ ने भी अपनी पुस्तक "भारत का प्राचीन इतिहास" के तीसरे संस्करण में यह लिखा है। "श्रवणबेलगोल के शिलालेखों के अध्ययन से यह स्पष्टतः सिद्ध है कि चंद्रगुप्त सचमुच राज्य त्यागकर, आचार्य भद्रबाहु के निर्देश में जैन मुनि हो गये थे। चंद्रगुप्त की शासन क्षमता, राष्ट्र विस्तार एवं संगठन की शक्ति इतिहास विदित तथ्य है। चंद्रगुप्त जैसे-जैसे अपने राज्य का विस्तार करते गये, जैन धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा भावना, उनके विजित क्षेत्रों में निर्ग्रथ मुनियों के लिए गुफाओं, आवासीय सुविधाओं, जिनालयों एवं शिलालेखों की व्यवस्था करती चली गई 19
मौर्य सम्राज्य से पूर्व मगध में पाटलीपुत्र के राजा नन्द के महामंत्री शकडाल एवं उनकी पत्नी लांछन देवी जैन धर्मानुयायी थे। उनके दो पुत्र स्थूलभद्र और श्रीयक थे तथा यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेना, वेना, रेणा आदि सात पुत्रियाँ थीं। ये सातों बहनें विलक्षण स्मरण शक्ति से युक्त थी तथा क्रमानुसार यक्षा एक बार तथा अन्य बहनें दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात बार किसी भी गद्य अथवा पद्य को सुनकर यथावत् सुना देती थी। कालांतर में ये साध्वियाँ बन गई । १२ स्थूल भद्र को सांसारिक आकर्षणों में अनुराग पैदा करवाने के लिए मंत्री शकडाल ने उन्हें राजगणिका रूपकोशा के पास भेजा। कोशा गणिका के रूप लावण्य में आसक्त
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