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________________ 172 ३.७.३७ रेवती श्राविका : भगवान महावीर एक बार श्रावस्ती नगरी पधारे। आजीवक मत का प्रवर्तन करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक भी वहीं था । उसने लोगों में अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैला दीं। भगवान महावीर ने उनका निराकरण किया। इससे गोशालक का आक्रोश बढ़ा। वह भगवान के समवसरण में गया। उसने क्रुद्ध होकर भगवान पर तेजोलब्धि का प्रयोग किया | चरमशरीरी होने के कारण उस लब्धिप्रयोग से भगवान का शरीरान्त नहीं हुआ। भगवान के शरीर को झुलसाकर वह शक्ति पुनः गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई। ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ तेजोलब्धि के प्रभाव से भगवान महावीर के शरीर में पित्तज्वर हो गया। उसके कारण भगवान को छ: महीनों तक खून के दस्त लगे। उस समय भगवान श्रावस्ती नगरी से विहार कर "मींढाग्राम' नाम के नगर में पधारे। वहाँ रेवती नाम की श्राविका रहती थी। वह भगवान के प्रति विशेष श्रद्धा रखती थी । उसके घर में कूष्माण्डपाक और बिजोरापाक बना था । भगवान ने सिंह नामक मुनि को बुलाकर कहा- सिंह! तुम उपासिका रेवती के घर जाओ। उसके घर में दो प्रकार के पाक । उसने कूष्माण्डपाक मेरे लिए बनाया है। वह मत लाना, बीजोरापाक ले आना।" सिंह मुनि प्रसन्न होकर रेवती के घर गए। रेवती ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। सिंह मुनि ने कुष्माण्ड पाक को अकल्प्य बताकर बिजोरापाक लेने की इच्छा प्रकट की । रेवती बोली - मुनिप्रवर ! मेरे मन का रहस्य आपको कैसे ज्ञात हुआ । सिंह मुनि ने कहा-श्राविका रेवती । भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने ही मुझे इस रहस्य से परिचित कराया है। यह सुनकर रेवती अत्यधिक प्रसन्न हुई । उसने उत्साह के साथ सिंह मुनि को बिजोरापाक का दान दिया । उस पाक का सेवन करने से भगवान महावीर का पित्तज्वर शांत हुआ। भगवान पूर्णरूप से स्वस्थ हो गए। भगवान ने अपनी ओर से सिंह मुनि को प्रेरणा देकर श्राविका रेवती के घर भेजा था। इससे रेवती के सौभाग्य का अनुमान लगाया जा सकता है। भाग्य के बिना ऐसा मौका किसी को सुलभ नहीं हो सकता । ११३ T ३.७.३८ महासती सुभद्रा जी यह बात प्रसिद्ध है कि सती सुभद्रा ने अपने शील के प्रभाव से चंपा के बन्द द्वार खोल दिए थे । द्वार खोलने से पहले उसने अपने ओजभरे शब्दों में आह्वान करते हुए कहा था- "मैं कच्चे धागे से चलनी बांधकर कुएं से पानी निकाल रही हूँ ।" उसकी अपील सुनकर लोग विस्मित हो गए। सुभद्रा ने अपने सतीत्व का जो पक्का प्रमाण प्रस्तुत किया, उससे जैनशासन की गरिमा बढ़ी। बसन्तपुर के राजा जितशत्रु के मंत्री जिनदास एवं उसकी पत्नी तत्वमालिनी की सुपुत्री थी सुभद्रा । सुभद्रा बचपन से ही धार्मिक प्रवत्ति की बालिका थी। लोगों में उसके गुणों की चर्चा थी। सुभद्रा ने यौवनावस्था में कदम रखा, योग्य वर की खोज होने लगी। जिनदास का मानसिक संकल्प था कि वह अपनी पुत्री का विवाह जैन युवक के साथ ही करेगा। चंपानगर में ही बौद्ध धर्मानुयायी बुद्धदास नाम का युवक रहता था। उसने एक बार सुभद्रा को देखा, उसके रूप, लावण्य और गुणों पर अनुरक्त हो गया। उसके लिये सुभद्रा की माँग की गई। जिनदास ने उसकी धार्मिक आस्था को न देखते हुए उस सम्बन्ध को अस्वीकार कर दिया । बुद्धदास को समझ में आ गया कि सुभद्रा को पाने के लिए जैन श्रावक होना जरूरी है। वह छद्म श्रावक बना, बारह अणुव्रत स्वीकार कर लिये। लोगों की दष्टि में वह पक्का श्रावक बन गया। जिनदास ने बुद्धदास को धर्मनिष्ठ और जैन श्रावक समझकर सुभद्रा का उसके साथ विवाह कर दिया। सुभद्रा ससुराल गई। वह बौद्ध भिक्षुओं की भक्ति नहीं करती थी । इस बात को लेकर उसकी सास और ननंद दोनों उससे नाराज थीं। एक दिन उन्होंने बुद्धदास से कहा- "सुभद्रा का आचरण ठीक नहीं है। श्वेतवस्त्रधारी जैन मुनियों के साथ उसके गलत संबंध हैं। बुद्धदास ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया । एक दिन सुभद्रा के घर एक जिनकल्पी मुनि भिक्षा लेने आए, सुभद्रा ने उनको भक्तिपूर्वक भिक्षा दी । उसने देखा मुनि की आंख में फांस अटक रही थी, और उससे पानी बह रहा था। सुभद्रा जानती थी कि जिनकल्पी मुनि किसी भी स्थिति में अपने शरीर की सार संभाल नहीं करते। उसने अपनी जीभ से मुनि की आंख में अटकी फांस निकाल दी। ऐसा करते समय सुभद्रा के ललाट पर लगी सिंदूर की बिंदी मुनि के भाल पर लग गई। सुभद्रा की ननंद खड़ी खड़ी सब कुछ देख रही थी, वह ऐसे ही अवसर की टोह में थी। उसने अपनी मां को सूचित किया। मां बेटी ने बुद्धदास को बुलाकर कहा - "तुम अपनी आंखों से देख लो, बुद्धदास ने उन पर विश्वास कर लिया। सुभद्रा के प्रति उसका व्यवहार बदल गया। सुभद्रा पर दुश्चरित्रा होने का कलंक आया । जिनकल्पी मुनि पर कलंक आया और जैनधर्म की छवि धूमिल हो गई। सुभद्रा के लिए यह स्थिति असहय हो गई। सुभद्रा ने प्रतिज्ञा की कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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