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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 173 जब तक वह कलंकमुक्त नहीं होगी तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करेगी। सुभद्रा की तीन दिन की तपस्या पूर्ण हो गई। चौथे दिन लोग सोकर उठे तो चम्पा के चारों द्वार बंद थे। द्वारपालों ने बहुत प्रयास किया पर द्वार नहीं खुले। नगर से बाहर आने जाने के सब रास्ते बंद होने से लोग परेशान हो गए। सहसा आकाशवाणी हुई-कोई सती कच्चे धागे से चलनी बांधकर कुएं से पानी निकाले और उससे दरवाजों पर छीटें लगाए तो वे खुल सकते हैं।" राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जो महासती यह महान् कार्य करेगी, उसे राजकीय सम्मान दिया जाएगा। पूर्व दिशा के द्वार पर महिलाओं का मेला लग गया। निकटवर्ती कुएं में चलनियों का ढेर हो गया, पर पानी नहीं निकला। चारों ओर व्याप्त निराशा के बीच सुभद्रा ने अपना सतीत्व प्रमाणित करने के लिए सास से आज्ञा माँगी। सास ने दो चार खरी-खोटी सुनाई। भद्रा ने अपने घर में ही चलनी से पानी निकालकर सास को विश्वास दिलाया। उसके बाद सास की आज्ञा प्राप्त कर वह कुएँ पर गई। उसने कच्चे धागे से चलनी को बांधा, चलनी कुएँ में डालकर पानी निकाला। उस पानी से पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के दरवाजों पर पानी के छींटे दिये। दरवाजे अपने आप खुल गये। चौथा दरवाजा उसने यह कहकर बंद ही छोड़ दिया कि कोई अन्य सती इसे खोलना चाहे तो खोल दे। दरवाजे खुलते ही नगर में उल्लास छा गया, सुभद्रा सती के जयघोषों से आकाश गूंज उठा। राजा ने राजकीय सम्मान के साथ उसे घर पहुंचाया। सुभद्रा घर पहुंची, उससे पहले ही उसके सतीत्व का संवाद वहाँ पहुंच गया था। बुद्धदास, उसके माता-पिता और बहन की स्थिति बहुत दयनीय हो गई। अपराध बोध के कारण वे आंख भी ऊपर नहीं उठा पाए। उन्होंने अपनी जघन्य भूल के लिए क्षमायाचना की। उस समय भी सुभद्रा के मन में उनके प्रति किसी प्रकार का रोष नहीं था। उसकी सहिष्णुता, विनम्रता और शालीनता ने परिजनों को इतना प्रभावित किया कि वे सब आस्था और कर्म से जैन बन गए। जैनशासन की अद्भुत प्रभावना हुई ।११४ ३.७.३६ सेठानी भद्रा जी : भद्रा राजगह के धनाढ्य गहपति गोभद्र की पत्नी थी। उनके एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्र का नाम शालिभद्र तथा पुत्री का नाम सुभद्रा था। शालीभद्र के बाल्यकाल में ही गोभद्र गहपति का शरीरान्त हो गया था। पति के असामयिक निधन के कारण भद्रा को न केवल पुत्र पुत्री के लालन-पालन की जिम्मेदारी निभानी पड़ी, वरन् पति के विस्तीर्ण विकसित वाणिज्य व्यवसाय की देखरेख का भार भी उठाना पड़ा। वात्सल्य प्रेम के कारण भद्रा ने शालिभद्र को व्यापार संचालनादि के दायित्व का भार नहीं सौंपा था। माता ने रुप-गुण तथा शीलयुक्त बत्तीस श्रेष्ठी कन्याओं के साथ अपने इकलौते पुत्र शालीभद्र का विवाह किया और शालीभद्र अपने सप्तखंडी प्रासाद पर अहर्निश सांसारिक सुख भोगने में लीन हो गया। भद्रा की असाधारण सूझबूझ तथा व्यावसायिक कुशलता के कारण व्यापार में निरन्तर वद्धि होती रही। भद्रा की व्यावसायिक संचालन क्षमता व सफलता ने दैवी चमत्कार की संभावना उत्पन्न कर दी। किंवदन्ती तो यह है कि पति गोभद्र मत्यु उपरान्त देव योनि में उत्पन्न हुआ था। वह अपने पुत्र स्नेह के कारण अपने पुत्र एवं पुत्रवधुओं की सुख सुविधा के लिए वस्त्र आभूषणों और भोजन से परिपूरित तैंतीस पेटियां प्रतिदिन उन्हें भेजता था। पिता की दानशीलता एवं माता की कार्य कुशलता ने शालीभद्र को निश्चिंत कर दिया और वह अपने राग रंग में रत, भौतिक सखों में जीवन व्यतीत करता था। एक दिन राजगह में रत्न कंबल के व्यापारी आए। उनके पास सोलह रत्नकंबल थे। एक-एक कंबल का मूल्य सवा लाख स्वर्ण-मुद्राएं था। राजगह के बाजार में उन्हें कोई खरीदार न मिला । श्रेष्ठी भद्रा ने नगर का गौरव रखने के लिए उन सभी कंबलों को खरीद लिया और एक-एक के दो-दो टुकड़े बनाकर बत्तीस पुत्र वधुओं को दे दिए। इन कम्बलों की यह विशेषता थी कि ये शीत ऋतु में गर्मी और गर्मी में शीतलता प्रदान करते थे। इन अद्भुत कंबलों को प्राप्त करने का रानी चेलना का अति आग्रह देखकर राजा श्रेणिक ने व्यापारियों को बुलाया पर उन्होंने विवशता प्रकट करते हुए कहा-"आपके न कंबल क्रय कर लिये हैं।" राजा श्रेणिक का संदेशा पाकर भद्रा राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार ले बोली-राजन्! बुरा न मानें । शालिभद्र और उसकी पत्नियां देव-दूष्य वस्त्र ही पहनती हैं। मेरे पति अब देवगति में हैं और वे प्रतिदिन उन्हें वस्त्र-आभूषण आदि भेजते हैं। रत्न कंबल का स्पर्श मेरी बहुओं को कठोर प्रतीत हुआ और इसीलिए उन्होंने उसका उपयोग पैर पोंछने के वस्त्र के रूप में किया है। "राजा और सभासद यह सुनकर आश्चर्य-मग्न हो रहे थे। भद्रा ने अति आग्रहपूर्वक राजा क को गाने पर लाने का लगा । गतान नीमा । Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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