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ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
भद्रा अपने रथ में बैठकर आवास पर आई। राजा के स्वागत की तैयारी में व्यस्त हो गई और राजा भी राजकीय समारोहपूर्वक भद्रा के निवास पर आये। भद्रा ने श्रेणिक राजा का अपने गह पर उचित स्वागत किया तथा पुत्र शालीभद्र को राजा से भेंट करने को बुलाया। माता का संबोधन कि “राजा श्रेणिक आए हैं वे अपने नाथ है" शालीभद्र को उचित नहीं लगा। "मैं स्वयं अपना स्वामी नहीं हूँ, मेरे पर भी कोई स्वामी है, यह क्या? मैं तो अब वही रास्ता खोजूंगा, जिसमें अपना स्वामी मैं स्वयं ही रहूँ। मुनि की धर्मदेशना सुनकर उसका मन सांसारिक भोगों से विरक्त हो गया। माता के अति आग्रह से प्रतिदिन एक पत्नी और एक शय्या का त्याग करते हुए क्रमशः वैराग्य की ओर अग्रसर होने लगा। प्रभु महावीर के राजगह पदार्पण पर शालीभद्र तथा उसके साले धन्ना ने प्रवज्या ग्रहण की। माता भद्रा भी पुत्रवधुओं के साथ श्रावक-धर्म स्वीकार कर साधनामय जीवन व्यतीत करने लगी।११५ एक बार तीर्थंकर महावीर अपने मुनिसंघ के साथ राजगही पधारे। शालीभद्र मुनि ने कठोर साधना से अपनी काया को कश
हावीर स्वामी की आज्ञा लेकर भद्रा माता के यहाँ आहार के लिए गये। पर महावीर के दर्शनार्थ जाने की आकुलता में माता भद्रा अपने पुत्र (मुनि) को नहीं पहचान सकी, और शालीभद्र बिना आहार प्राप्त किये ही लौट गये। मार्ग में पूर्व जन्म की माता धन्या ने मुनि वात्सल्य के वशीभूत होकर उन्हें दहीं से पारणा करवाया। प्रभु ने स्पष्ट किया कि दही देने वाली तुम्हारे पूर्व जन्म की माता थी। मुनि शालीभद्र भ० महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर संलेखना कर के पर्वत पर चले गये। माता भद्रा अपने परिवार सहित समवसरण में आई। भ० महावीर ने इस अवसर पर शालीभद्र की भिक्षाचरी से लेकर अनशन तक का सारा वत्तान्त कह सुनाया। यह ज्ञात होने पर कि द्वार पर आये उपेक्षित मुनि कोई और नहीं बल्कि पुत्र शालीभद्र तथा जामाता धन्य ही थे, माता भद्रा को वज्राघात सा लगा। वह शीघ्रता से पर्वत पर पुत्र को देखने गई। पुत्र की कशकाया तथा साधनामय जीवन को देखकर माता का हृदय विकल हो उठा, वह मूर्च्छित हो गई। सम्राट् श्रेणिक भी वहाँ उपस्थित थे, उन्होंने माता भद्रा को आश्वस्त किया तथा धर्म में दढ़ रहने के लिए प्रेरित किया। माता भद्रा के पुत्र शालीभद्र का वैभव विलासमय सांसारिक जीवन तथा कठोर साधना युक्त साधु जीवन दोनों ही असाधारण तथा अद्वितीय थे।°१६
३.७.४० जयंति श्राविका : कौशाम्बी नगरी में सहस्त्रनीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की भगिनी, उदयन राजा की बुआ, मगावती देवी की ननन्द और वैशालिक भगवान महावीर के श्रावक (वचन श्रवणरसिक) अर्हतो (अर्हन्त-तीर्थंकरो) के साधुओं की पूर्व (प्रथम) शय्यातरा (स्थानदात्री) 'जयन्ती' नाम की श्रमणोपासिका थी। वह सुकुमाल यावत् सुरुपा और जीवाजीवादि तत्वों की ज्ञाता होकर यावत विचरती थी। उस काल और उस समय में भगवान महावीर स्वामी कौशाम्बी नगरी पधारे। उनका समवसरण लगा यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। जयन्ती श्रमणोपासिका एवं बहुत सी कुब्जा आदि दासियों सहित मगावती देवी श्रमण भगवान महावीर की सेवा में देवानन्दा के समान पहुंची, यावत् भगवान को वन्दना-नमस्कार किया और उदयन राजा को आगे करके समवसरण में बैठी और उसके पीछे स्थित होकर पर्युपासना करने लगी। तदनन्तर वह जयंति श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं? जयन्ती। जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्रगुरुत्व को प्राप्त होते हैं और इससे निवत्त होकर जीव हल्के होते हैं यावत् संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं। प्र० भगवन्! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागत रहना अच्छा? उ० जयन्ती! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागत रहना अच्छा है। प्र० भगवन्! ऐसा किस कारण कहते हैं कि कुछ जीवों का सुप्त रहना और कुछ जीवों का जागत रहना अच्छा है? उ० जयन्ती! जो ये अधार्मिक, अधर्मानुसरणकर्ता, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्मविलोकनकर्ता, अधर्म में आसक्त,
अधर्माचरणकर्ता और अधर्म से ही आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है क्योंकि ये जीव सुप्त रहते हैं तो उनके प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को दुःख शोक और परिताप देने में प्रवत्त नहीं होते। ये जीव सोये रहते हैं तो अपने को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं (प्रपंचो) में नहीं फंसाते, इसलिए इन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है।
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