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________________ 178 ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ सद्दालपुत्र अपने धर्म पर पूर्ण विश्वास रखता था। देव उन्हें अपने धर्म व व्रतों से विचलित करना चाहते थे। देव ने धर्म व्रतों से विचलित करने के लिए सद्दालपुत्र की परीक्षा ली। देव ने पाया कि सद्दालपुत्र निर्भय धर्माचरण कर रहा है। जब देव अपने कृत्य में सफल नहीं हो पाया तब उसने सद्दालपुत्र को यह चेतावनी देकर भयभीत किया कि वह उसकी पत्नी अग्निमित्रा को मार डालेगा। इस संवाद से सद्दालपुत्र कुछ विचलित हुआ लेकिन निर्भयता के साथ वह देव को पकड़ने दौड़ा और उसका पीछा करने लगा। कोलाहल होने से अग्निमित्रा भी वहाँ आ गई, उसने यह सब दश्य देखा। अग्निमित्रा ने पति के सन्तप्त मन को शान्त करते हुए उनसे आग्रह किया कि वे भयग्रस्त न हों वह सुरक्षित है। धर्म मार्ग में अटल रहना ही उनके लिये श्रेयस्कर है, विचलित होने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। सहधर्मिणी अग्निमित्रा की इस दढ़ प्रेरणा और भक्ति से सद्दालपुत्र पुनः ध्यानावस्थित हुआ। १२० ३.७.५१ रेवती : रेवती, राजगही के सम्पत्तिवान् श्रेष्ठी महाशतक की पत्नी थी। समद्धिशाली माता-पिता की पुत्री होने के कारण रेवती को आठ करोड़ स्वर्ण मुद्रा तथा दस-दस हज़ार गायों के आठ गोकुल दहेज में मिले थे। महाशतक की अन्य बारह पत्नियाँ अपने दहेज में केवल एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा तथा दस-दस हज़ार गायें लाई थीं। अतः रेवती सौतिया डाह से अन्य सहपत्नियों से ईर्ष्या-द्वेष रखती थी। तीर्थंकर महावीर के आगमन पर अन्य उपासकों के समान महाशतक ने भी धर्मदेशना के पश्चात् श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये तथा अपनी विपुल सम्पत्ति की सीमा निर्धारित की। महाशतक श्रावक ने अपनी तेरह पत्नियों के अतिरिक्त अन्य किसी नारी से देहिक सम्पर्क न रखने का प्रण लिया। रेवती को पति के इस प्रण का पता शीघ्र लग गया। उसने सौतिया डाह के वशीभूत होकर मन में सोचा कि यदि मैं इन बारह सौतों का अन्त कर दूं तो संपूर्ण समद्धि एवं पति के साथ सांसारिक सुखों का भोग अकेली कर सकूँगी। अनुकूल अवसर देखकर उसने छ: को शस्त्र द्वारा तथा छः को विष देकर मरवा दिया। इसके पश्चात् वह आनंदित होकर अपने पति महाशतक के साथ सांसारिक सुख भोगने लगी। रेवती मांस के बने विभिन्न व्यंजनों का भोजन तथा मदिरा पान उन्मुक्त मन से करती थी। ___ एक बार राजगही नगरी में अमारि की घोषणा हुई। तब रेवती ने अपने पीहर से सेवकों को बुलाकर आदेश दिया कि तुम मेरे माता-पिता के यहाँ से प्रतिदिन दो बछड़े नित्य मारकर लाया करो। सेवकों ने रेवती की आज्ञा का पालन किया। रेवती पूर्ववत् मांस मदिरा का सेवन करती हुई समय व्यतीत करने लगी। महाशतक श्रावक ने चौदह वर्ष तक व्रत नियमों का सम्यक् पालन किया। ज्येष्ठ पुत्र को परिवार की जिम्मेदारी सौंपकर पौषधशाला में धर्म ध्यान में अधिक समय तक लीन रहने लगे। एक दिन रेवती पौषघशाला में पहुँची और पति से बोली "संसार में विषय भोगों से बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है, अतः परलो प्राप्ति के इन सभी प्रयत्नों को छोड़कर मेरे साथ सांसारिक जीवन के सुख का उपभोग करो।" महाशतक श्रावक तीर्थंकर महावीर के उपदेशानुसार साधना को ही जीवन का ध्येय मानते थे। रेवती के बार बार बोलने पर भी वे अपने धर्म ध्यान से विचलित नहीं हुए। महाशतक ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का शास्त्रानुसार पालन किया। इस कठोर व उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यंत कृश हो गया। यह देखकर मत्यु की कामना न करते हुए उन्होंने संलेखना व्रत अंगीकार किया। साधना के शुभ अध्यवसायों के कारण उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। इसी बीच एक बार रेवती पुनः उन्मादिनी होकर महाशतक के पास आई और महाशतक को अपने प्रण से विचलित करने का प्रयत्न करने लगी। इस बार महाशतक श्रावक को क्रोध आ गया और वे बोले “अपना अनिष्ट चाहने वाली हे रेवती, तूं अवगुणों की साक्षात् मूर्ति है। तूं सात दिन में ही अलस रोग (मंदाग्नि के रोग) से पीड़ित होकर असमाधि मत्यु प्राप्त कर रत्नप्रभा पथ्वी के नीचे लोलुपच्युत नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थितिवाले नारकी जीवों में उत्पन्न होगी। श्राविका के बारह व्रतों का पालन न करने से रेवती के जीवन का दुःखद अंत हुआ। श्रावक महाशतक ने रेवती के प्रति किये गये कटु शब्दों का प्रायश्चित्त किया /२८ ___ ३.७.५२ सुश्राविका अश्विनी जी : श्रावस्ती के वैभवशाली श्रेष्ठी नंदिनीपिता की धर्मपत्नी अश्विनी थी, जो रूपवती गुणवती तथा विद्यावती थी। तीर्थंकर महावीर शिष्य शिष्याओं सहित श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में पधारे। नंदिनीपिता ने भगवान के समवसरण में धर्मदेशना सुनी एवं बारह व्रतों को ग्रहण किया, संपत्ति की मर्यादा की। स्वगह आकर उसने अपनी धर्मपत्नी अश्विनी को प्रेरित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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