SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 179 किया कि वह भी प्रभु के चरणों में अविलम्ब पहुँचकर अलभ्य देशना को श्रवण करे तथा आत्मोन्नति हेतु बारह व्रतों को अंगीकार करे। अश्विनी ने कोष्ठक चैत्य में भगवान् महावीर के सान्निध्य में पाँच अणुव्रत और शिक्षाव्रतों को समझकर गहस्थ धर्म के बारह व्रतों को श्रद्धापूर्वक अंगीकार किया, अपने घर आकर उसने बारह व्रतों का दढ़तापूर्वक पालन किया । १२६ ३.७.५३ सुश्राविका फाल्गुनी जी : श्रावस्ती के सेठ शालिनीपिता की पतिपरायणा सहधर्मिणी थी फाल्गुनी । एक बार प्रभु महावीर का पदार्पण नगरी में हुआ। शलिनीपिता ने भगवान का धर्मोपदेश सुनकर श्रावक के बारह व्रतों को धारण किया तथा अपनी धर्मपत्नी को भी प्रेरित किया। फाल्गुनी समवसरण में पहुँची, श्रद्धापूर्वक वंदन कर वह परिषद् के मध्य बैठ गई। भगवान् के मुखारविंद से जब उसने बारह व्रतों को सुना तो उनके मन में यह विश्वास हो गया कि गहस्थी में प्रवत्त रहते हुए इन सबका सहज रूप से पालन किया जा सकता है। उसने उन व्रतों को अंगीकार किया और प्रसन्न मन से उसने अपने जीवन में बारह व्रतों का पालन करते हुए अपनी आत्मा का कल्याण किया।१३० ३.७.५४ सुदर्शन श्रेष्ठी की माता : राजगही नगर में 'सुदर्शन' नामक धनाढ्य श्रेष्ठी रहते थे। वे जीव-अजीव के ज्ञाता प्रभु महावीर के उपासक थे। उनकी माता भगवान् की दढ़ श्रद्धालु श्रमणोपासिका थी। माता के संस्कार भी सुदर्शन श्रेष्ठी की धर्मश्रद्धा के कारण ही थे। एक बार राजगह में अर्जुन माली का आतंक छाया हुआ था, तब प्रभु महावीर नगरी के बाहर उपवन में पधारे। सुदर्शन ने माता-पिता से भगवान् के दर्शनार्थ जाने की अनुज्ञा माँगी। सुदर्शन की दढ़ भावना को देखकर, बड़े साहस एवं प्रभु के प्रति अट श्रद्धा के कारण पत्र मोह पर विजय प्राप्त कर माता-पिता ने आज्ञा दे दी। सदर्शन की तेजस्विता के समक्ष अर्जन के भीतर रही हुई दैवी शक्ति पराजित हुई। अर्जुन भी सुदर्शन श्रेष्ठी से प्रभावित हुआ। प्रभु महावीर के दर्शन कर पापों का प्रायश्चित्त किया। संयम अंगीकार कर घोर तप किया और मुक्त हुए। संस्कारवान सुदर्शन श्रेष्ठी जैसे वीरधीर पुत्र को पैदा करने वाली ऐसी माता इतिहास की मिसाल है |१३१ ३.७.५६ सुश्राविका श्रीमती देवी : पोलासपुर में विजय राजा राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम "श्रीमती" था। उनके पुत्र का नाम अतिमुक्तक था जो "एवंता" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक बार गौतम स्वामी भिक्षार्थ नगरी में पधारे। बच्चों के साथ खेल रहे अतिमुक्तक गौतम की ऊंगली पकड़कर अपने घर ले आया। श्रीमती अपने पुत्र द्वारा साधु को आते हुए देखकर प्रसन्न हुई तथा उन्हें भक्तिपूर्वक आहार दिया।३२ श्राविका श्रीमती ने मुनियों को आहार से प्रतिलाभित कर श्राविका की भक्तिमत्ता का आदर्श रखा। चरम शरीरी अतिमुक्तक कुमार को भगवान् के शासन में दीक्षित किया और जिनशासन की प्रभावना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ३.७.५६ सुंसुमा (सुषमा) : राजगही नगरी में धन्य सार्थवाह रहता था। उसके पांच पुत्र थे तथा एक ही पत्री थी, जिसका नाम "सुंसुमा" था। सुंसुमा को क्रीड़ा करवाने के लिए "चिलात" नाम का दासपुत्र नियुक्त था। वह दूसरे बच्चों के खिलौने और कपड़े तथा गहनें ले लेता और उन्हें मारपीट भी करता। चिलात को धन्ना सेठ ने बहुत समझाया पर उसकी आदत नहीं छूटी। अंत में उसे घर से निकाल दिया। चिलात कुव्यसनों में फंसकर सिंहगुफा नाम की चोरपल्ली के सरदार विजय चोर के गिरोह में शामिल हो गया। सुषमा युवावस्था को प्राप्त हुई। सुंसुमा का सौंदर्य उसके हृदय में बस गया। उसने एक रात्रि अचानक धन्ना सेठ के घर पर हमला कर दिया। सेठ-सेठानी, पांचों पुत्र इस अकस्मात आक्रमण से भाग खड़े हुए। सेठ का धन और बेटी सुंसुमा को लेकर डाक दल वन में भाग गया। शांति होने पर घर आकर संसमा को नहीं पाकर कीमती भेंट लेकर परिजन नगर रक्षक के समीप गए। नगर रक्षकों ने चोर पल्ली पर जबरदस्त हमला किया। चोरों ने धन फेंक दिया। नगर रक्षक उसे बटोरने में लग गए । धन्य सेठ और पांचों पुत्र ने चिलात द्वारा सुंसुमा बालिका को लेकर भागते हुए देखा, तथा उसका पीछा किया। भार से दौड़ने में असमर्थ चिलात सुंसुमा का सिर काटकर धड़ को फेंकता हुआ झाड़ी में लुप्त हो गया । लगातार दौड़ने के परिश्रम से भूख-प्यास से तड़फते हुए पिता पुत्रों की स्थिति भी मरने जैसी हुई। उन्होंने विश्राम किया आहार खाया तथा नगरी में आकर पुत्री का क्रियाकर्म किया। कालांतर में शोक रहित हुए ।३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy