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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास भाग खड़ी हुई। शहाबुद्दीन गौरी भी गुर्जर सेना के शस्त्राघातों से घायल हो अपनी बची सेना के साथ गौर की और लौट गया। नायकीदेवी ने मुहम्मद गौरी जैसे दुर्दान्त विदेशी आततायी को अपने साहस, शौर्य एवं रणकौशल से युद्ध में परास्त तथा घायल कर अहिंसा के गौरवशाली समुन्नत भाल पर कायरता की कलंक-कालिमा की छाया तक न पड़ने दी। नायकीदेवी की अदभुत वीरता का परिचय प्राप्त होता है। ५.४६ लक्ष्मी : ई. सन् की ६ वी १० वीं शती. गुजरात के श्री वर्मताल राजा के मंत्री सुप्रभदेव के सुपुत्र शुभंकर की पत्नी थी लक्ष्मी। सुप्रभदेव के बड़े भाई दत्त के पुत्र माघ कवि थे, जिन्होंने शिशुपाल आदि उत्कष्ट काव्यों की रचनाओं से प्रसिद्धि प्राप्त की थी। लक्ष्मी और शुभंकर के पुत्र थे सिद्धर्षि, उनका जन्म गुजरात राज्य की तत्कालीन राजधानी श्रीमाल नामक ऐतिहासिक नगर में हुआ था। सिद्धर्षि के जीवन में औदार्य आदि अनेक गुण थे, लेकिन जुआँ खेलने का बुरा व्यसन था। परिजनों द्वारा समझाने पर भी व्यसनों से उपरत होने के बजाय वे धीरे-धीरे दुर्व्यसनों में घिर गये एवं रात्रि में बड़ी देर से घर लौटने लगे। पत्नी धन्या इस कारण दुःखी थी, दिन प्रतिदिन कशकाय होती जा रही थी। लक्ष्मी ने बहू से आग्रहपूर्वक कारण पूछा । धन्या ने सास को वस्तुस्थिति से परिचित किया। लक्ष्मी ने बहू को सोने के लिए भेज दिया, स्वयं रात्रि को पुत्र के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। रात्रि के तीसरे प्रहर में सिद्धर्षि ने द्वार खटखटाया। बोला मैं आपका पुत्र सिद्ध हूँ, दरवाजा खोलो। माता लक्ष्मी कठोर स्वर में पुत्र को शिक्षित करने हेतु बोली मैं नहीं जानती उस स्वेच्छाचारी सिद्ध को, जिसके घर आने जाने का कोई समय निश्चित नहीं है। यह भी कोई समय है घर लौटने का । गहस्थों के घरों के द्वार रातभर खुले नहीं रह सकते। पुत्र के अनुनय करने पर भी लक्ष्मी ने द्वार नहीं खोला और कहा-चला जा वही, जहाँ रात में द्वार खुले रहते हो। इसे माँ का आदेश समझकर सिद्ध उल्टे पाँव लौटा। नगर में घूमने लगा। खुले द्वार वाले घर की खोज में घूमते हुए सिद्ध विभिन्न मार्गों, गलियों में घूमते हुए जैन उपाक्षय में पहुँचा । वहाँ उसने शांत दांत, स्वाध्याय, ध्यान तथा विविध आसनों में रत मुनिजनों को देखा । देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ तथा अपने जीवन को धिक्कारते हुए, माँ को इस स्थान तक पहुँचाने हेतु मन ही मन धन्यवाद दिया। वह पट्ट पर बिराजमान आचार्य के समीप पहुँचकर अपना द्यूत, व्यसन आदि संपूर्ण वत्तांत सुनाया, और आचार्य जी को चरणों में रखने हेतु विनंती की। आचार्य श्री जी से संयमी जीवन की कठोरता को श्रवण करने पर भी सिद्धर्षि अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए, पिता की अनुमति प्राप्त कर वे दीक्षित हुए। सिद्धर्षिमुनि श्रमण जीवन धारण कर उपमिति-भव प्रपंच कथा नामक महाकाव्य के सभी गुणों से परिपूर्ण अध्यात्म रस से ओतप्रोत विशाल ग्रंथ की रचना कर अक्षयकीर्ति अर्जित की। निश्चय ही सिद्धर्षि के लिए माँ की शिक्षा भी वरदान बन गई। लक्ष्मी ने पुत्र सिद्धर्षि को व्यसनों से मुक्त बनाकर एक साहित्यकार संत बनाने में अपना महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान दिया था। ५.५० जाकलदेवी : जाकलदेवी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल की धर्मपत्नि थी । राजा चालुक्य जैन बिंबो से घणा करने वाला राजा था । एक बार सुयोग्य शिल्प कलाकार ने अतिशय सुंदर, भव्य मनोज्ञ, विशाल, जिन प्रतिमा बनाकर राजा के सम्मुख उपस्थित की । राजा देखकर अनयमनस्क और उद्विग्न हुआ । रानी ने राजा के हृदयगत भावों को पहचानकर प्रेरणा भरे वचन कहे - "राजन क्षमा कीजिए मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ, अतः आपसे कुछ कहने का अधिकार रखती हूँ । राजन् । यह भौतिक रंग क्षणस्थायी एवं विनश्वर है । इस जिन प्रतिमा की नग्नमुद्रा में जो सन्देश है। वह संसार सागर से पार कर चिरंतन और अमर सुख देने वाला है। रानी के शिक्षा भरे वचन ने राजा के हृदय को अत्यधिक प्रभावित किया । राजा जिन धर्मानुयायी बना, अपने जीवन में मन्दिर, जिनालय आदि बनवाकर जैन धर्म की प्रभावना और प्रचार में अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। शीलवती जाकलदेवी जैन संस्कति की संरक्षिका, पतिभक्ता, धर्मपालिका, सत्यशीला एवं कर्तव्य परायणा नारी रत्नों में से एक थी ४० ५.५१ पंपा देवी : ई. सन् की १२ वीं शती. हुम्मच में तोरनबागिल के उत्तर खंभे पर प्राप्त शिलालेख के अनुसार राजकुमारी पंपादेवी प्रसिद्ध दानवीर राजा तैलसांतार एवं महारानी चत्तलेदवी की पुत्री थी । पंपादेवी महापुराण में विदुषी थी, परमविद्यासंपन्नता के कारण वह शासन देवता के विरूद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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