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________________ 250 I से विभूषित थी । पंपादेवी ने "अष्टविध अर्चना", "महाभिषेक" एवं "चतुर्भक्ति की रचना "कन्नड़ भाषा में की थी । पुण्यचरित्रशीला पंपाने छने हुए प्रासु जल से एक मास की अल्प अवधि में "उर्वीतिलक - जिनालय" का निर्माण करवाकर धूमधाम से प्रतिष्ठा करवाई थी । अष्ट प्रकारी पूजा, जिनाभिषेक, चतुर्विध-भक्ति में उनकी अत्यंत आस्था थी । जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार, पूजन, व्यय तथा शास्त्र - लेखन के लिए वह दिल खोलकर दान देती थी । पंपादेवी की पुत्री बाचलदेवी अतिमब्बे के समान प्रवीण थी । दोनों ही द्राविलसंघ नंदीगण, अरूंगलान्वय अजितसेन पंडितदेव (वादीभसिंह) की शिष्या श्राविका थी । धर्मपरायण वल्लभराजा (विक्रमादित्य सान्तर) पंपादेवी के लघु भ्राता थे । ४१ कन्नड़ के महाकवियों ने पंपादेवी के विषय में प्रमुदित होकर कहा है- आदिनाथ चरित्र का श्रवण पंपादेवी का कर्णफूल था, चतुर्विध दान ही उसका हस्तकंकण था, तथा जिनस्तवन ही उसका कण्ठहार था। ५.५२ कुन्दाच्चि (कदाच्छिका ) ई. सन् की आठवीं शती. आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ देवरहल्लि में पटेल कष्णप्य के ताम्रपत्रों पर लिखे ७७६ ईस्वी के लेख के अनुसार कुन्दाच्चि सागरकुलतिलक पल्लवराज और मरूवर्मा की प्रिय पुत्री थी। इनके पति थे पथ्वीनिर्गुण्ड राज, जिनका पहला नाम परमगुल था । गंगनरेश श्रीपुरूष (ई. सन् ७२६ से ७७६) के राज्यकाल में कुन्दाच्चि ने श्रीपुर की उत्तर दिशा में "लोकतिलक" नामक जिनमंदिर बनवाया था, जिसके जीर्णोद्धार, नव निर्माण, देव पूजा, दानधर्म आदि के लिए परमगुल के महाराजा परमेश्वर श्री जसहितदेव ने "पोनाल्लि' ग्राम दान स्वरूप प्रदान किया था, तथा रानी की प्रेरणा से इस जिनालय को समस्त करों से मुक्त रखकर अन्य अनेकों भूमि भी प्रदान की गई थी । लेख में ग्राम सीमाओं का तथा दान के साक्षिओं का भी उल्लेख हैं । ४२ ५.५३ लक्ष्मीमति : (लक्ष्मीयाम्बिके, लक्कले) ई. सन् की १२ वीं शती. वह शूरवीर, धर्मवीर, होयसल राजवंश के महाराजा विष्णुवर्द्धन के महाप्रतापी जैन सेनापति गंगराज की धर्मपरायणा पत्नी थी। जैन धर्म में वर्णित चारों दान- आहारदान, अभयदान, औषधदान, ज्ञानदान, (शास्त्रदान) को सतत देकर "सौभाग्यखानी" की उपाधि प्राप्त की थी। लक्ष्मी देवी ने श्रवणबेलगोल में ई. सन् १११८ में एक सुन्दर जिनालय का निर्माण करवाया जो एरडुकट्टेवसति के नाम से प्रसिद्ध है। कई जिनालय बनवाये, जीर्णोद्धार करवाया, जिनके संचालन के लिए गंगराज ने उदारतापूर्वक भूमि का दान दिया था । लक्ष्मीमति को अपने पति की "कार्यनीतिवधू" और "रणेजयवधू" कहा गया है। निपुणता, सौंदर्य तथा ईश्वरभक्ति में वह अग्रणी थी। ईस्वीं सन् ११२१ में लक्ष्मीमति ने संलेखनापूर्वक शरीर का त्याग किया था। ३ ५. ५४ महासती हर्यले : (हर्यल) ई. सन् की १२वीं शती. लू. राईस के अनुसार करडालु स्थान की ध्वस्त बस्ति के एक स्तम्भ पर कन्नड़ भाषा में लिखा यह लेख प्राप्त हुआ है। कर्नाटक की नागरिक महिला हर्यले की जैन धर्म के प्रति गाढ़ अनुरक्ति थी। महासती हर्यले बड़ी धर्मपरायणा एवं धर्मप्रेरिका सन्नारी थी । मत्यु के समय उसने अपने पुत्र भुवननायक को बुलाकर कहा- स्वप्न में भी मेरा ख्याल न करना, धर्म का ही विचार करना । यदि तुम्हें पुण्योपार्जन करना है तो जिन मन्दिर बनवाना, साधर्मी का आदर करना । जिनेंद्र प्रतिमा के चरणों की उपस्थिति में पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए, आसक्ति के बंधनों को तोड़ते हुए अंतिम समय में हर्यले ने समाधिपूर्वक मत्यु का वरण किया था। हर्यले की धर्म प्रेरणा इतनी गजब की थी कि उसने मत्यु को सन्निकट देखते हुए भी पुत्र को सन्मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया था । ४४ ५. ५५ अतिमब्बे : ई. सन् की १०वीं शती : ( अतिमब्बरसि है ) • १०वीं शती की यह श्राविका केवल कर्नाटक ही नहीं अपितु समस्त जगत के गौरव की प्रतीक है। दानचिंतामणि अतिमब्बे पढ़े लिखे घर में जन्मी थीं। उसके दादा नागमय्या नाम के सुप्रसिद्ध जैन थे, जिनके दो पुत्र थे मल्लपय्या और पौन्नमया । अतिमब्बे के पिता (जनरल) सेनापति मल्लपय्या थे जो भारी विद्वान, माने हुए ज्योतिषी, धनुर्विद्या के कुशल शिक्षक थे। उनकी एक ओर पुत्री थी, जिसका नाम गुंडमब्बे था। दोनों की शादी चालुक्य सेनापति नागदेव के साथ हुई जो प्रधानमंत्री धालप्पा के पुत्र थे, तथा राजा आहवमल्लदेव के सेनापति थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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