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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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आपका गहस्थाश्रम आनंदमय था। परन्तु निर्दयी विधि को सहन नहीं हुआ व अनायास ही पति की मत्यु से अतिमब्बे का जीवन अंधकारमय हो गया । उस समय की प्रथा के अनुसार नागदेव की दूसरी पत्नी गुंडमब्बे पति के साथ सती हो गई । परन्तु सती प्रथा को जैनधर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध समझ कर अतिमब्बे ने ऐसा करना उचित नहीं समझा | वह अपने एकमात्र पुत्र अण्णिगदेव की रक्षा करती हुई श्राविका व्रतों का पालन करते हुए गहस्थाश्रम में रही । यद्यपि अतिमब्बे आमरण जैन श्राविका रही, फिर भी कठिन से कठिन व्रतों के द्वारा इसने अपने शरीर को इतना कश कर दिया था कि तत्कालीन महाकवि रन्न ने उनको कामपराङ्मुखता तथा देहदंडन नाम के दोनों गुणों की साक्षात् मूर्ति बताकर बड़ी प्रशंसा की है। उसने अपने शील सदाचार, अखण्ड पातिव्रत्य धर्म और जिनेन्द्र भक्ति में अडिग आस्था के फलस्वरूप गोदावरी नदी में आई हुई प्रलयकारी बाढ़ के प्रकोप को भी शांत कर दिया था, और उसमें फंसे हुए अपने पति के साथ-साथ सैंकड़ों वीर सैनिकों को सुरक्षित रूप से स्वस्थान वापिस ले आई थी।
अतिमब्बे स्वयं तो विदुषी थी ही, उसने आग्रहपूर्वक सुप्रसिद्ध महाकवि रन्न (रत्नाकर) से 'अजितनाथ-पुराण' की रचना अपने आश्रम में रखकर करवाई थी । इस देवी ने अपने व्यय से उभयभाषा चक्रवर्ती महाकवि पोन्न द्वारा सन ६३३ में लिखे गये "शांति-पुराण" की एक सहस्र प्रतियां लिखवाकर विभिन्न शास्त्र भंडारों में वितरित की थी। इससे कर्नाटक में सर्वत्र जैन धर्म का बहुत प्रचार हुआ। उसने अन्य हस्तलिखित काव्यों की भी रक्षा की थी। मुद्रणालयों के अभाव के कारण उस जमाने में प्रत्येक ग्रंथ की प्रत्येक प्रति को हाथ से लिखना-लिखवाना पड़ता था। अतः जिस ग्रंथ की प्रतियां अधिक तैयार होती थीं, उस ग्रंथ का प्रचार उतना ही अधिक हुआ करता था। इसकी सुचारू व्यवस्था न होने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ और उसके रचयिता का नाम हमेशा के लिए लुप्त हो जाया करता था। अतिमब्बे की प्रेरणा से ऐसे कई महत्वपूर्ण ग्रंथ पुनर्जीवित किए गये थे। साहित्य-सेवा के साथ-साथ उन्होंने "मणिकनकखचित” (सोने तथा रत्नों से मढ़ी हुई) १५०० जिन प्रतिमाएं विधिवत् बनवाकर विभिन्न जिनालयों में प्रतिष्ठित कराई थीं। प्रत्येक प्रतिमा के लिए एक-एक चित्ताकर्षक बहुमूल्य मणिघटा, दीपमाला, रत्न तोरण तथा बितान (चंदरवा-मूर्ति के ऊपर बांधने का नक्षीदार चौकोर कपड़ा) भी भेंट किया। अपने इन्हीं उदार एवं प्रेरक सत्कार्यों के कारण वह सर्वत्र "दान-चिंतामणि" के नाम से प्रसिद्ध थी।
एक बार अतिमब्बे ग्रीष्मकाल में श्रवणबेलगोला में बाहुबली स्वामी के दर्शनार्थ गई। पर्वत पर चढ़ी तीखी धूप से संतप्त हो सोचने लगी कि इस समय कुछ वर्षा हो तो बड़ा अच्छा हो। तत्क्षण मेघ एकत्रित हुए जोरों से पानी बरसने लगा। इस घटना से अतिमब्बे की भक्ति द्विगुणित हुई। बाहुबली स्वामी की भक्ति से पूजा कर संतुष्ट हुई। कन्नड़ कवि रत्नत्रयों में सर्वमान्य महाकवि रन्न ने अपने अजितपुराण में इस घटना का उल्लेख किया है। स्वयं सम्राट एवं युवराज की इस देवी के धर्मकार्यों में अनुमति, सहायता एवं प्रसन्नता थी। सर्वत्र उसका अप्रतिम सम्मान और प्रतिष्ठा थीं। उक्त घटना के लगभग एक सौ वर्ष पश्चात् भी सन् ११८ ईस्वी के शिलालेख के अनुसार होयसल नरेश के महापराक्रमी सेनापति मंगराज ने महासती अतिमब्बे द्वारा गोदावरी के प्रवाह को स्थिर कर देने की साक्षी देकर ही उमड़ती हुई कावेरी नदी को शांत किया था। किसी सतवंती, दानशीला या धर्मत्मा महिला की सबसे बड़ी प्रशंसा यह मानी जाती थी कि "यह तो दूसरी अतिमब्बे हैं अथवा अभिनव अतिमब्बे हैं। डॉ भास्कर आनंद सालतौर के शब्दों में "जैन इतिहास के महिला जगत् में सर्वाधिक प्रशंसित प्रतिष्ठित नाम अतिमब्बे हैं। तत्कालीन कवियों ने दानचिंतामणि अतिमब्बे को कई उपाधियों से विभूषित किया है। तथा शिलालेख में जिन प्रतिमाओं की निर्माता के रूप में उनका सादर स्मरण किया है। वस्तुतः अतिमब्बे एक आदर्श जैन महिला श्राविका थी, जिसका स्मरण कर आज भी नारी जाति का मस्तक गौरवान्वित होता है।५ ५.५६ श्राविकारत्न महारानी शांतलदेवी : (ई. सन् की १२ वीं शती).
___वह महाराज विष्णुवर्द्धन पोयसल की पट्टमहिषी थी। महाराज इनका बड़ा आदर करते थे तथा इन्हें उद्वत सवति-गंधवारण अर्थात् उच्छंखल सौतों को काबू में रखने के लिए 'मत्तहस्ति' विरूद्व दिया था। शांतलदेवी के पिता कट्टर शैव धर्मानुयायी मारसिंगय्य पेन्डै थे, माता परम जिन धर्मानुयायी माचिकब्बे थीं। देशीगण पुस्तकगच्छ के श्री प्रभाचंद्र सिद्धांत देव की शिष्या महारानी शांतलदेवी ने जैन धर्म की प्रभावना के लिए अनेक स्थायी कार्य किये थे तथा दान आदि देकर उसने चतुर्विध संघ का उत्कर्ष किया
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