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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
था। श्लाघ्यपुरूषों के पुराण चरित्र सुनने में उसकी बड़ी दिलचस्पी थी। शांतलदेवी ने श्रवणबेलगोला तीर्थ पर ईस्वी सन् ११२३ में भगवान् शांतिनाथ की विशालकाय प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। ईस्वी सन् ११२३ में वहीं पर उसने गंगसमुद्र नामक सुंदर सरोवर का निर्माण कराया था तथा सवति-गंधवारण बस्ति नामक एक अत्यंत सुन्दर एवं विशाल जिनालय भी बनवाया था । नित्य देवार्चन संरक्षण आदि के लिए महाराज विष्णुवर्द्धन की अनुमतिपूर्वक मन्दिर के लिए एक ग्राम भेंटस्वरूप अपने गुरू को दिया था। शांतलदेवी धर्मात्मा, सती-साध्वी नारी-रत्न थीं। अपनी सुंदरता एवं संगीत, वाद्य, नत्य आदि कलाओं में निपुणता के लिए यह विदुषी नारी रत्न सर्वत्र विख्यात थी। अपने अनुज दद्द महादेव के साथ रानी शांतलदेवी ने एक ग्राम वीर कोंगाल्व जिनालय के लिए भी प्रदान किया था। अन्य शिलालेखों में कई छोटे-छोटे गांवों के दान का वर्णन है। अंतिम समय में श्रमणोपासिका शांतलदेवी ने विषय भोगों से विरक्त हो कई महीनों तक अनशन और ऊनोदरी आदि तपों का पालन किया था । ईस्वी सन् ११३१ में शिवगंगे नामक स्थान में इस देवी ने संलेखना धारण कर समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया था। शिलालेख में शांतलदेवी को सम्यक्त्व चूडामणि आदि सार्थक नाम दिये गये हैं। शांतलदेवी की पुत्री हरियब्बरसि विशेष दानशीला एवं समाज सेविका रही हैं। जैन महिलाओं के इतिहास में इस देवी का नाम चिरस्थायी है।
जैन शांतलदेवी (विष्णुवर्द्धन की बड़ी रानी थी) का समय ईस्वी सन् १११७ से ११३१ का है । वह अति कला प्रिय, अति मिलनसार, सुसंस्कत, सभ्य एवं सुंदर थी। सभी कलाओं में पारंगत, भरतनाट्यम की प्रतिभा संपन्न विद्यार्थिनी, नत्यकला में भूषण स्वरूप, गायन कला में सरस्वती सम, न्याय में बहस्पति समान, तुरन्त वाद में वाचस्पति के समान थी। उसकी धार्मिक सहिष्णुता के कारण वह प्रशंसनीय थी। चारो वर्णो के प्रति उसका समान आदर का भाव था, और सभी धर्मों की श्रद्धा को वह सुरक्षित रखनेवाली थीं। ५.५७ चट्टलदेवी : ई. की १० वीं शती.
__ गंग वंशावली में अंतिम प्रमुख नाम राजा रक्कस गंग पेर्मानडि राचमल्ल पंचम का है। चट्टल देवी इनकी पौत्री थी। इनके पति पल्लवनरेश काडुवेट्ठी थे । रानी चट्टलदेवी ने अपने पुत्र एवं पति का मत्यु के बाद अपनी छोटी बहन की चार संतानों को अपना माना और उनके साथ शान्तरों की राजधानी पोम्बुच्चपुर में जिनालयों का निर्माण कराया था। उसने अनेक मन्दिर, बसदियाँ, तालाब, स्नानगह तथा गुफायें बनवायीं और आहार, औषध, शिक्षा तथा आवास, दान आदि की समुचित व्यवस्थायें की। चट्टलदेवी के गुरू द्रविड़ संघ के विजयदेव भट्टारक थे।४७ ५.५८ पालियक्क : ई. सन् की १० वीं शती.
पार्श्वनाथ बस्ति एवं द्वार के पश्चिम भींत पर अंकित शिलालेख के अनुसार यह तौल पुरूष सांतार की स्त्री थीं। वह बड़ी ही धर्मपरायणा स्त्री थी। उसने अपनी माता की स्मति में एक पाषाण का जिनमन्दिर बनवाया, और उस मन्दिर की व्यवस्थाओं के लिए दान आदि दिया था। कालान्तर में वह मन्दिर "पालियक्क बसदि" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । ५.५६ जक्कियव्वे : ई. सन् की १० वीं शती.
१० वीं शताब्दी के प्रथम चरण में राष्ट्रकूट नरेश कष्णततीय के राज्यकाल में ६११ ई. में नागरखण्ड के अधिकारी सत्तरस को नियुक्त किया गया। जक्कियव्वे शासन में सुदक्ष थी और जिनशासन की भक्त थी, यद्यपि वह नारी थी पर बहादुरी में किसी से कम नहीं थी। उसने नागरखण्ड की सुरक्षा की थी। मत्यु को समीप आया देखकर उसने बन्दनि नामक पवित्र स्थान में जाकर वहां के जिनालय में सल्लेखनापूर्वक प्राणों का त्याग किया था। ५.६० बाचलदेवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
सन् ११४७ तोरनबागिल के उत्तर दिशा के खम्भे पर प्राप्त शिलालेख के अनुसार यह महाविदुषी पंपादेवी की पुत्री थी। बाचलदेवी अतिमब्बे के समान प्रवीण थी, वह नागदेव की भार्या थी एवं पाडल तैल की माता थी। वह बड़ी ही जिन धर्मपरायणा थी। इसने पोन्नकत शांतिपुराण की १००० प्रति लिखवाकर वितरित की तथा १५०० सुवर्ण जवाहरात की मूर्तियां बनवाई थी। बाचलदेवी द्राविलसंघ, नंदीगण, अरूंगलान्वय, अजितसेन पंडितदेव अथवा वादीभसिंह की गहस्थ शिष्या थीं । ५०
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