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दुष्काल से देशवासियों की रक्षा हेतु दोनों पति पत्नी ने एक सौ बारह (११२) सत्रागार विभिन्न नगरों में खोले ।, सुदूरस्थ प्रदेशों के राजा श्रेष्ठी, जनसेवियों द्वारा अनाज की मांग करने पर प्रचुर मात्रा में धान्यराशियाँ प्रदान की तथा अणहिल्लपुरपाटण गुर्जरराज बीसलदेव द्वारा सम्माननीय स्थान प्राप्त किया था। शाहपत्नी एक आदर्श भारतीय महिला थी, जिसने अपने पति को जनसेवा के इस महान यज्ञ में करोड़ों लोगों की सेवा करने में अपना अनमोल सहयोग प्रदान किया था । इतिहास की वह एक मिसाल थी ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
५. ४४ विमलश्री : ई. सन् की १३वीं शती.
विमलश्री दौलताबाद के धनीमानी श्रेष्ठी देदाशाह की सेठानी थी। वह धर्मात्मा, उदार हृदयी तथा असहायों का सहारा थी । विमल श्री ने पाँच दिन का उपवास किया, पारणे में खीर का भोजन करते हुए मालिन की ललचाती कुपित दष्टि का शिकार बनी। पेट में दर्द हुआ, और मत्यु को प्राप्त हुई । ४ उसने जैन धर्म की तप परंपरा का पालन किया यह उसका प्रमुख अवदान है। ५.४५ प्रथमिणी : ई. सन् की १३वीं शती.
सेठ देदाशाह एवं विमलश्री के पुत्र पेथड़शाह की पत्नी का नाम प्रथमिणी था । प्रथमिणी सच्चे अर्थों में पतिव्रता, सद्धर्मिणी तथा सम्यक्त्वी श्राविका थी। उसने पति की निर्धनता में भी धर्मपथ का विश्वास बनाये रखा, अतः सुख के दिन भी नसीब हुए। घी का बहुत बड़ा कारोबार उनका हो गया था। बत्तीस वर्ष की छोटी अवस्था में उसने आजीवन ब्रह्मचर्य का नियम ग्रहण किया । प्रथमिणी के बुद्धिमान पुत्र का नाम झांझण कुमार था ।३५
५. ४६ लीलावती : ई. सन् की १३वीं शती.
माण्डवगढ़ के राजा जयसिंहदेव की रानी लीलावती थी। लीलावती को ज्वर ने पीड़ित किया था, जो मंत्री पेथड़शाह के अभिमंत्रित चादर के प्रभाव से ठीक हो गया था। इस बात से लीलावती पर कलंक लगाकर राजा ने उसे महलों से निष्कासित किया । तथा सच्चाई के प्रकट होने पर राजा ने लीलावती को पटरानी बनाया। लीलावती ने श्रमणोपासिका के व्रतों को धारण किया। राजा ने रानी लीलावती की धर्म प्रेरणा से महल में भगवान् पार्श्वनाथ का स्वर्णमंदिर बनाया था । ३६
५.४७ सौभाग्यवती : ई. सन् की १३वीं शती.
झांझण की पत्नी का नाम सौभाग्यवती था, वह दिल्ली के श्रेष्ठी की पुत्री थी । वह भी श्रमणोपासिका तथा धर्मश्रद्धालु सन्नारी
थी। ३७
५. ४८ नायकीदेवी : ई. सन् की १२वीं शती.
जैन धर्म के प्रति शताब्दियों से प्रगाढ़ निष्ठा रखने वाले कदम्ब राजवंश के महाराजा परमर्दिन् की राजकुमारी और "परमार्हत्" विरूद से विभूषित एवं अहिंसा के सक्रिय परमोपासक गुर्जरेश्वर कुमारपाल की पुत्रवधू तथा गुर्जराधिपति अजयदेव की महारानी थी नायकीदेवी । अपने पति अजयदेव के तीन वर्ष के अत्याचारपूर्ण शासन के समाप्त हो जाने के अनंतर उसके अल्पवयस्क बड़े पुत्र मूलराज (द्वितीय) को अणहिलपुर पत्तन के राजसिंहासन पर आसीन किया गया। तब राजमाता नायकीदेवी ने विशाल गुर्जर राज्य की संरक्षिका के रूप में शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली । उसने गुर्जर राज्य की प्रजा को सुशासन देने के साथ-साथ गुर्जर राज्य को एक शक्तिशाली राज्य बनाने के भी प्रयास किये। वि. सं. १२२५ ई. सन् ११७८ में गौर के सुल्तान मोहम्मद गौरी ने गुजरात पर आक्रमण किया । राजमाता नाइकीदेवी ने अपने बालवय के पुत्र मूलराज (द्वितीय) को अपनी गोद में बिठा गुर्जर राज्य की सेना का नेतत्व करते हुए, मोहम्मद गोरी के सम्मुख बढ़कर उसपर भीषण आक्रमण किया। आबू पर्वत के अंचल में अवस्थित गाड़रारघट्ट नामक घाटे में दोनों सेनाओं के बीच तुमुल युद्ध हुआ । राजमाता नायकीदेवी ने रणांगन की अग्रिम पंक्ति पर शत्रु सेना का संहार करते हुए अद्भुत साहस और शौर्य के साथ गुर्जर राज्य की सेना का कुशलतापूर्वक संचालन किया । प्रकति ने भी मुक्तहस्त से राजमाता की सहायता की। मुसलाधार वर्षों में युद्ध की अनभ्यस्त शत्रुसेना के रणांगन से पैर उखड़ गये। नायकीदेवी ने अपने योद्धाओं का उत्साह बढ़ाते हुए शत्रुसेना पर प्रलयंकर प्रहार किये। गौरी की सेना प्राण बचा उल्टे पांवों
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