SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 २.३ जैन आगम साहित्य के अनुसार पौराणिक काल का विभाजन : जैन आगम साहित्य में बीस कोटा कोटि सागर की उपमा से परिमित समय को काल-चक्र की संज्ञा दी है और प्रत्येक काल चक्रार्ध छः छः आरों में विभक्त हैं जिनके नाम इस प्रकार है -- १. २. ३. ४. पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ सुषमा - सुषमा सुषमा - सुख रूप, तीन कोटा - कोटि सागरोपम समय का है। सुषमा - दुःखमा - सुख-दुःख रूप दो कोटा कोटि सागरोपम का है। दुःखमा- सुषमा – दुःख-सुख रूप, ४२ हजार वर्ष न्यून एक कोटा - कोटि सागरोपम प्रमाण है। दुःखमा - दुःख रूप, इक्कीस हजार वर्ष का है । अत्यंत सुखरूप, चार कोटा - कोटि सागरोपम प्रमाण समय का है। ५. ६. दुःखमा - दुःखमा अत्यंत दुःख रूप इक्कीस हजार वर्ष का है। उपर्युक्त क्रम अवसर्पिणीकाल के आरों का है। उत्सर्पिणी काल के छः आरों का क्रम इससे विपरीत है। वह काल दुःखमा दुःखमा से प्रारंभ होकर सुखमा सुखमा पर समाप्त होता है। इस काल में अधिकाधिक सुख आदि की क्रमशः अभिवृद्धि होती है । ' प्रत्येक काल चक्रार्ध के तृतीय एवं चतुर्थ आरे में त्रेसठ (६३) श्लाघ्य ( प्रशंसनीय) पुरूष जन्म लेते हैं, जिनमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं। वर्तमान अवसर्पिणी के तृतीय आरे में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जी का जन्म हुआ। तृतीय आरे के तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर उनका निर्वाण हुआ। उनके शासन काल में मरूदेवी, ब्राह्मी, सुंदरी, सुनंदा, सुमंगला आदि महान् सन्नारियाँहुई । चतुर्थ आरे में शेष तेईस तीर्थंकरों का जन्म एवं निर्वाण हुआ । द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ जी से चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदन नाथ जी तक के तीर्थंकर काल की माताओं के सिवाय अन्य श्राविकाओं के वर्णन उपलब्ध नहीं होते। बीसवें तथा बाईसवें तीर्थंकर के काल को छोड़कर पाँचवे से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर के काल तक उनकी माताओं के साथ ही कतिपय अन्य श्राविकाओं के वर्णन भी उपलब्ध होते हैं । किन्तु बीसवें तीर्थंकर के काल की, (जिसे रामायण काल कहते है) तथा बाईसवें तीर्थंकर काल की, (जिसे महाभारतकाल कहा है) उस काल की माताओं के अतिरिक्त भी जैन श्राविकाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं। Jain Education International I इतिहासकारों ने प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जी तथा बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि जी के काल को प्रागैतिहासिक/पौराणिक काल के अंतर्गत रखा है। पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल अर्थात् इतिहास की गणना से परे सुदूर अतीतकाल । तथाकथित काल के अंतर्गत महान् नारियाँ / महिलाएँ / श्राविकाएँ / पुण्यात्मायें हुई हैं जिनमें प्रमुख रूप से तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव तथा माण्डलिक राजाओं की माताएँ थी, जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखती थी । संसार के सभी पुरूषों में तीर्थंकर सर्वश्रेष्ठ पुरूष होते हैं। इनको जन्म देनेवाली पुण्यशालिनी माताओं के संबंध में आचार्य मानतुंग ने कहा है, "इस पथ्वीलोक पर सैंकड़ों माताएँ सैंकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, लेकिन जैसे सर्वदिशा प्रकाशक सूर्य को पूर्व दिशा जन्म देती है, इसी प्रकार त्रिलोकप्रकाशक पुत्र को जन्म देने वाली तीर्थंकर माताएँ ही होती है ।२.अ तीर्थंकर प्रभु की माताएँ तीर्थंकर के जन्म से पूर्व शुभ फलदायक चौदह स्वप्न देखकर आनंदित होती हैं, तथा उनके जन्म के पश्चात् भी अभूतपूर्व अनिर्वचनीय आनंद का 'अनुभव करती हैं। चक्रवर्ती की माताएँ इन्हीं चौदह स्वप्नों को कुछ अस्पष्ट देखती हैं। वासुदेव की माताएँ सात स्वप्न, बलदेव की माताएँ चार स्वप्न, मांडलिक राजा की माताएँ एक शुभ स्वप्न देखती है। पुण्यवान् आत्माओं के गर्भ में आगमन से माताओं को शुभ दोहद पैदा होते है । अस्तु प्रस्तुत द्वितीय अध्याय में हम उन सब महिमामयी सन्नारियों का वर्णन प्रस्तुत करेंगे। यद्यपि इनमें व्रतधारिणी श्राविकाओं के कतिपय उल्लेख उपलब्ध होते हैं। अधिकांश श्राविकाएँ जैन धर्म के प्रति आस्थावान् थी, किंतु उनके श्राविका व्रत ग्रहण आदि संपूर्ण घटनाओं का विवरण उपलब्ध नहीं होता है। अतः जितना विवरण उपलब्ध हो पाया है, उतना विवरण लिखने का पूर्ण प्रयत्न किया है। इस अध्याय में उन ३२८ श्राविकाओं का वर्णन है । प्रस्तुत पौराणिक काल की जैन श्राविकाओं के संबंध में जो मूलस्त्रोत उपलब्ध है, वे मूलतः तीन भागों में विभक्त हैं : यथ १. आगम साहित्य की कथाएँ, जिनका रचनाकाल ई० पू० पाँचवीं शती से ई० सन् की पाँचवीं शती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy