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महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
श्रमणों के लिए एक गुफा और एक अर्हतो का मंदिर हस्तिसाहस (हस्तिसाह) के पौत्र लालाक की पुत्री, खारवेल की पटरानी ने बनाया है।"
बेनर्जी के अनुसार इन तीनों शिलालेखों की लिपि खारवेल के हाथीगुंफा के शिलालेख के थोड़े ही समय बाद की है। हाथीगुंफा का लेख यद्यपि तिथि रहित है, फिर भी खारवेल का समय डिमोट्रियस और सातकर्णी के समय के साथ याने ई. पू. दूसरी सदी का पूर्वार्ध मानने के पर्याप्त कारण है। जायसवाल के अनुसार खारवेल की रानी का नाम या तो लेख में दिया नही गया है, अथवा वह "घुषिता" है, खारवेल की रानी वज्रकुल की थी।२१ ४.३ खारवेल परिवार का जैन धर्म प्रभावना में योगदान ___महाराजा खारवेल का जन्म लगभग ई. पूर्व १६० में हुआ था। १५ वर्ष की आयु में उन्हें युवराज पद प्राप्त हुआ, २४ वर्ष की आयु में उनका राज्याभिषेक हुआ था, लगभग तेरह वर्ष तक उन्होंने राज्य किया था। राजा खारवेल कलिंग (उड़िसा) के समर्थ शासक थे। राज्य प्राप्ति के तेरहवें वर्ष में उन्होंने जैन धर्म के बारह श्रावकव्रतों को स्वीकार किया था। इनका इतिहास प्रसिद्ध हाथीगुंफा शिलालेख उड़ीसा प्रदेश के पुरी जिले में स्थित भुवनेश्वर से तीन मील की दूरी पर उदयगिरि पर्वत पर बने हुए हाथीगुफा मंदिर के मुख एवं छत्त पर उत्कीर्ण है, इसकी तिथि ई. पू. १५२ है। इस शिलालेख का प्रारंभ अर्हतो और सिद्धों की वंदना से होता
है।
राजा खारवेल की माता ऐरादेवी थी और पत्नी रानी सिंधुला थी। दोनों ही परम जिनभक्त श्राविकाएँ थीं। खारवेल द्वारा जिनधर्म-मंदिर निर्माण में एवं मुनि सम्मेलन करवाने में इनकी प्रबल प्रेरणा रही थी। ई. पू. १५३ में कुमारी पर्वत पर इन्होंने जैन मुनियों का महासम्मेलन किया था। उस सफल सम्मेलन में द्वादशांगी श्रुत के उद्धार के लिए प्रयत्न किया गया था।
उदयगिरि का प्रांत भाग "कुमारी पर्वत" के नाम से प्रसिद्ध था। उसे अत्यंत पवित्र स्थान माना जाता था। इसी कुमारी पर्वत पर राजा खारवेल ने निर्वाण प्राप्त अरहंतों की पूजा के लिए कायनिषद्या बनवाई थीं। कुमारी पर्वत के समीप ही राजा खारवेल की रानी सिंधुला ने भ्रमणशील श्रमणों (तपस्वियों) के निवास के लिए एक कृत्रिम गुफा (लेण) बनवाई थी, तथा उसी के निकट एक निसिया का निर्माण करवाया था। संभवतः अभिलेख में इसे 'अरहंत प्रासाद' भी कहा गया हैं। दोनों अब सुरक्षित नहीं है, किंतु दोनों की रचना स्तूपाकार होती थीं। मूर्तिपूजा का प्रचलन होने से स्तूप पूजा भी पहले प्रचलित थी।
__ विद्वानों ने अशोक का राज्यकाल ई. पू. २७२ से लेकर २३६ तक का तथा खारवेल का ई. पू. १८५ से १७३. १७२ तक का माना है। इस प्रकार खारवेल का राज्यारोहण अशोक के देहावसान के लगभग ५० वर्ष बाद हुआ था। जिस प्रकार प्रियदर्शी राजा अशोक व्यक्तिगत रूप से श्रमण भगवान बुद्ध का उपासक बन गया था उसी प्रकार कलिंगराज खारवेल जिसने मगध के राजा को अपनी पद-वंदना के लिए विवश किया था, मथुरा को (बहुत संभवतः यवन) आक्रमणकारियों से विमुक्त कराया था तथा सुदूर दक्षिण तक विजय यात्रा की थी भगवान् महावीर का उपासक था। मथुरा से शक शत्रप एवं कुषाण शासन-काल की उनकी अनेक प्रतिमाएँ तथा आयागपट्ट मिले हैं, जिन पर उनके वर्धमान तथा महावीर दोनों नाम अंकित है। जिस प्रकार अशोक के शिलालेखों से बौद्ध धर्म के विकास तथा प्रचार प्रसार पर ऐतिहासिक प्रकाश पड़ता है। उसी प्रकार खारवेल के शिलालेख से जैन धर्म के इतिहास पर पुरातात्विक प्रकाश पड़ता है। खारवेल अरहंत तथा सिद्धों का उपासक था। ४.४ जैन गुफा निर्माण में खारवेल की रानी का योगदान
ई. पू. द्वितीय शती के हाथीगुंफा शिलालेख से प्रमाणित होता हैं कि कलिंग के चेदी राजवंश के महामेघवाहन कुल के ततीय नरेश खारवेल ने नंदराजा द्वारा बलपूर्वक ले जाई गई कलिंग की मूर्ति को पुनः लाकर उदयगिरि पहाड़ी पर ही संभवतया पुनर्प्रतिष्ठित किया है। उदयगिरि की निचली पहाड़ी और इसके निकट की खण्डगिरि पहाड़ी अत्यंत प्राचीन समय से ही जैन धर्म का केंद्र रही है। ध्यान और मुनि जीवन की साधना के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करती रही हैं। खारवेल नरेश ने अपने शासन के तेरहवे वर्ष में कुमारी पर्वत (आधुनिक उदयगिरि) पर जैन मुनियों के लिए गुफायें बनवाई। राजकुल के अन्य व्यक्ति भी गुफायें बनवाकर दान करने के पवित्र कार्य में सक्रिय भाग लेते थे।
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