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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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उदयगिरि की गुफा संख्या १ ( अपर नाम स्वर्गपुरी) के ऊपरी तल के मुखभाग पर निर्मित समर्पणात्मक शिलालेख से ज्ञात होता हैं कि इसका निर्माण खारवेल की पटरानी की दानशीलता के कारण हुआ था । अपने आत्म निग्रह के लिए विख्यात जैन मुनियों के निवास के लिए निर्मित इन गुफाओं में सुख सुविधाएँ बहुत ही कम थी । उदयगिरि पहाड़ी की रानी गुंफा की ऊँचाई इतनी कम है कि कोई व्यक्ति उनमें सीधा खड़ा भी नहीं हो सकता । कोठरियों में देवकुलिकाएँ नहीं बनाई गई थी । धर्मशास्त्र और अत्यंत आवश्यक वस्तुएँ रखने के लिए बरामदे की पार्श्व भित्तियों में शिलाफलक उत्कीर्ण किये गये हैं । कोठरियों का अंतरिम भाग एवं बरामदे की छतों को सहारा देनेवाली भित्तियों को शिल्पांकन तथा मूर्तियों से सजाया गया हैं।
रानी गुंफा की विशेषता यह है कि इसमें मुख्य स्कंध के समकोण की स्थिति में कोठरियों के दो छोटे स्कंध हैं जिनके सामने बरामदा है और भूतल पर दो छोटे सुरक्षा कक्ष है। स्वर्गपुरी के सामने खुले स्थान में एक शैलोत्कीर्ण वेदिका आगे को निकली हुई है जो एक छज्जे का आभास देती है। कोठरियों में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है, दरवाजों की अधिकता के कारण भी यह संभव हो सका है, जिनकी संख्या कोठरियों के आकार के आधार पर एक से चार तक है। दरवाजों की बाहरी चोखटों में चारों ओर छेद बनाये गये हैं ताकि उनमें घूमनेवाले लकड़ी के कपाट लगाए जा सके। चित्रों में देखिए, श्राविकाएँ विनयावनत मुद्रा में स्थित है । २४ ४. ५ मथुरा में चतुर्विध संघ प्रस्तरांकन एवं जैन श्राविकाएँ
भारत के पौराणिक नगरों मे मथुरा का गौरवशाली स्थान है। इस महानगर में भारत की सामाजिक सभ्यता एवं संस्कृति का उदय तथा विकास हुआ था । भौगोलिक कारणों से तत्कालीन भारतीय समाज में मथुरा की विशेष स्थिति थी । शताब्दियों से इस प्रदेश को दूर-दूर के कला-प्रेमियों, तक्षकों, पर्यटकों, वाणिज्यिक सार्थवाहों, महत्वाकांक्षी शासकों, धनलोलुप आक्रांताओं को आकर्षित करने के अतिरिक्त प्रमुख नगरों एवं अनेक मार्गों को परस्पर संबंधित कर रखा था। इन्हीं राजमार्गों पर विचरण करते हुए अनेकानेक सन्तों ने भारतीय जनमानस को धर्मोपदेश देते हुए इसी नगर को अपनी धार्मिक गतिविधियों एवं विद्या के प्रचार-प्रसार का केंद्र बना लिया था। इस प्रकार के नगरों की गौरव गाथाएँ इतिहासज्ञों, दार्शनिकों, एवं चिंतकों को शोध की प्रेरणा देती रहती है। चतुर्विध प्रस्तरांकन में जो दष्टि दी है, उस पर डॉ. भगवतशरण उपाध्यायजी के मतानुसार प्राचीन तीर्थंकर मूर्तियों में वी. ४ आधार पर सामने दो सिंहों के बीच धर्मचक्र बना है, जिसके दोनों ओर उपासकों के दल हैं। कुषाणकालीन तीर्थंकर मूर्तियों पर इस प्रकार का प्रदर्शन एक साधारण दश्य है ।
४.६ चतुर्विध संघ प्रस्तरांकन
राज्य संग्रहालय, लखनऊ में कंकाली टीला मथुरा की कुल ६६ प्रतिमाएँ हैं, जिन पर जैन धर्म के चतुर्विध संघ का बहुलता से प्रस्तरांकन किया गया है। इनमें ४५ बैठी, ५ खड़ी, ६ सर्वतोभद्र, २ ऐसी प्रतिमाएँ हैं जिन पर शेरों का रेखांकन हैं व लेख ११ पर ऐसी घिसी हुई प्रतिमाएँ हैं जिनके नीचे संघ बनाया गया होगा किंतु इस समय आभासमात्र ही शेष हैं। एकमात्र प्रतिमा है जिस पर लेख नही हैं । २५ तीन प्रतिमाएँ ऐसी हैं जिनपर मात्र गहस्थ ही धर्मचक्र पर बने है। इन्हीं तथा इसके बायीं ओर वस्त्राभूषणों से समलंकृत माला लिए एक श्राविका और दायीं ओर श्रावक, जो बायें कंधे पर उत्तरीय डाले खड़ा हैं। दोनो ही ने दाएँ हाथों में पुष्प ले रखा है । २६ कायोत्सर्ग प्रतिमाओं पर त्रिरत्न पर धर्मचक्र एवं बायीं ओर तीन स्त्रियाँ, जो हाथों में कमल लिए लम्बी धोती, कुण्डल व चूड़ी पहने खड़ी है, श्राविकाएँ हैं । ये काफी लम्बी है, ऐसा लगता है कि विदेशी है। श्राविकाएँ कई ढंग से साड़ी बांधे, माथे पर टीका पहने, कान व हाथ तथा पैरों में आभूषणों से मंडित रूपायित की गई हैं। ये दायें हाथ से माला, बायें हाथ से साड़ी का छोर, कहीं हाथ कमर पर रखे, क्वचित पुष्प लिए पाई जाती हैं।२७ तीर्थंकर प्रतिमा की सिंहासन वेदी पर तीन स्त्रियाँ हाथ जोड़े, चौथी कमल लिए हैं। अहिच्छत्रा की मात्र प्रतिमा की चौकी पर सुंदर से चारों वंदन मुद्रा में पुरुष-स्त्री, साधु-साध्वी बने हैं। यह संवत् ७४ की हैं तथा अहिच्छत्रा से प्राप्त हुई है। इस प्रकार ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शती पुराशिल्प में अविच्छिन्न रूप से प्रभूत मात्रा में विलेखन पाते हैं ।
४. ७ मथुरा में चैत्य निर्माण, जिन प्रतिमा प्रतिष्ठा आदि में श्राविकाओं का अवदान.
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मथुरा में ई० सन् से
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लगभग चार-पाँच शताब्दी पूर्व, जैन धर्म के स्तूपों की स्थापना हुई जो आज कंकाली टीले के नाम से
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