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महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
वर्तमान मथुरा संग्रहालय से पश्चिम की ओर करीब आधा मील की दूरी पर स्थित है। वह पवित्र स्थान ढाई हजार वर्ष पहले जैन धर्म के जीवन का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। उत्तर भारत में यहाँ के तपस्वी आचार्य सूर्य की तरह तप रहे थे। यहाँ की स्थापत्य और भास्कर कला के उत्कृष्ट शिल्पों को देखकर दिग्दिगंत के यात्री दाँतों तले ऊँगली दबाते थे। यहाँ के श्रावक और श्राविकाओं की धार्मिक श्रद्धा अनुपम थी। अपने पूज्य गुरूओं के चरणों में धर्म भक्त लोग सर्वस्व अर्पण करके नाना प्रकार की शिल्पकला के द्वारा अपनी अध्यात्म साधना का प्रदर्शन करते थे। यहाँ के स्वाध्यायशील भिक्षु और भिक्षुणियों द्वारा संगठित जो अनेक विद्यापीठ थे, उनकी कीर्ति भी देश के कोने-कोने में फैल रही थी। इन विद्यास्थानों को गण कहते थे, जिनमें कई कुल और शाखाओं का विस्तार था। इन गण और शाखाओं का विस्तत इतिहास जैन (श्वेतांबर) कल्पसूत्र तथा मथुरा के शिलालेखों से प्राप्त होता है। ४.८ देवनिर्मित स्तूप
कंकाली टीले की भूमि पर एक प्राचीन जैन स्तूप और दो मंदिर या प्रासादों के चिन्ह मिले थे। अर्हत नन्द्यावर्त अर्थात् अठारहवें तीर्थंकर अरह नाथ जी की प्रतिमा की चौकी पर खुदे हुए एक लेख में लिखा हैं कि कोट्टिय गण की वज़ी शाखा के वाचक आर्य वद्धहस्ति की प्रेरणा से एक श्राविका ने देवनिर्मित स्तूप में अर्हत की प्रतिमा स्थापित की थी। २८ ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ईसा के बाद ग्यारहवीं शताब्दी तक के शिलालेख और शिल्प के उदाहरण इन देवमंदिरों से मिले हैं। लगभग १३०० वर्षों तक जैनधर्म के अनुयायी यहाँ पर चित्र-विचित्र शिल्प की सष्टि करते रहे। इस स्थान से प्रायः सौ शिलालेख और डेढ़ हजार के करीब पत्थर की मूर्तियाँ मिल चुकी हैं। प्राचीन भारत में मथुरा का स्तूप जैन धर्म का सबसे बड़ा शिल्पतीर्थ था। यहाँ के भव्य देव-प्रासाद, उनके सुंदर तोरण, वेदिका, स्तम्भ, मूर्धन्य या उष्णीष पत्थर, उत्फुल्ल कमलों से सुसज्जित सूची, पूजा का चित्रण करनेवाले स्तम्भ तोरण आदि अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के कारण आज भी भारतीय कला के गौरव समझे जाते हैं। माथुरक लवदास की भार्या का आयागपट्ट जिसमें षोडश आरेवाला चक्र चित्रित हैं, मथरा शिल्पकला का मनोहर प्रतिनिधि करता है। फलायश नर्तक की भार्या शिवयशा के सुंदर आयागपट्ट अविस्मरणीय है। महाक्षत्रप शोडास के राज्यकाल के ४२वें वर्ष में उत्सर्गित अमोहिनी का आयागपट्ट भी उल्लेखनीय हैं।२६
मथुरा के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय जैन समाज में स्त्रियों का बड़ा सम्मान था। अधिकांश दान और प्रतिमा प्रस्थापना उन्हीं की श्रद्धा भक्ति का फल थी। सर्व सत्वों के हितसुख के लिए तथा अर्हतपूजायै ये दो वाक्य कितनी ही बार लेखों में आते हैं। ये उस काल के भक्तिधर्म की व्याख्या करनेवाले दो सूत्र हैं, जिनमें इसलोक के जीवन को परलोक के साथ मिलाया गया है। गहस्थों की पुरंध्री कुटुम्बिनी बड़े गर्व से अपने पिता, माता, पति, पुत्र, पौत्र, सास-ससुर का नामोल्लेख करके उन्हें भी अपने पुण्य भागधेय अर्पण करती थी। स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय ही मथुरा का प्राचीन भक्तिधर्म था।
इन पुण्यचरित्र श्रमण श्राविकाओं के भक्तिभरित हृदयों की अमर कथा आज भी हमारे लिए सुरक्षित हैं और यद्यपि मथुरा का वह प्राचीन वैभव अब दर्शनपथ से तिरोहित हो चुका है, तथापि इनके धर्म की अक्षम्य कीर्ति सदा अक्षुण्ण रहेगी। वस्तुतः काल प्रवाह में अदष्ट होनेवाले प्रपंच चक्र में तप और श्रद्धा ही नित्य मूल्य वस्तुएँ हैं। जैन तीर्थंकर तथा उनके शिष्य श्रमणों ने जिस तप का अंकुर बोया था, उस छत्रछाया में सुखासीन श्रावक-श्राविकाओं की श्रद्धा ही मथुरा के पुरातन वैभव का कारण थी। उल्लेखनीय है कि ब्रज में मात्र मथुरा के कंकाली टीले से ही नहीं अपितु सैंकड़ो मीलों में तीर्थंकरो की प्रतिमाएँ पाई जाती हैं, जो मथुरा और लखनऊ संग्रहालयों में सुरक्षित रखी गई हैं, और ये सब श्वेतांबर जैनाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी।३० ४.६ ईश्वरी : ईस्वी सन् की प्रथम शती
सोपारक देश के धनी मानी श्रेष्ठी जिनदत्त निग्रंथ धर्म का उपासक था। उसकी धति संपन्न पत्नी का नाम ईश्वरी था। एक बार दुष्काल का भयंकर प्रकोप चल रहा था। तब श्राविका ईश्वरी का धैर्य धान्याभाव के कारण डगमगा गया। उसने पारिवारिक जनों से परामर्श कर सविष भोजन खाकर प्राणान्त करने की बात सोची और एक लक्ष्य स्वर्ण मुद्रा मूल्य के शालि पकाए और वह भोजन में विष मिलाने का प्रयत्न कर ही रही थी तभी आर्य वज्रसेन भिक्षार्थ परिभ्रमण करते हुए श्रेष्ठी जिनदत्त के घर पहुंचे। मुनि को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने विष पूरित पात्र को भोजन से दूर रखा। मुनि को विशुद्ध भावों से आहार दान दिया। चतुर ईश्वरी ने मुनि के समक्ष अपनी योजना बताई, तब मुनि ने उन्हें दुष्काल समाप्ति का संकेत दिया। ईश्वरी परिवार सहित दुष्काल
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