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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास 199 समाप्ति का समत्व भाव से इंतजार करने लगी। दूसरे दिन प्रभात में अन्न से भरे पोत नगर की सीमा पर आ पहुँचे। आर्य वज्रसेन की वाणी सत्य सिद्ध हुई और उधर ईश्वरी देवी ने अपने पति एवं नागेन्द्र, चन्द्र, विद्याधर और निवत्ति आदि के चार पुत्रों सहित दीक्षा अंगीकार की। श्राविका ईश्वरी की गुरू के प्रति श्रद्धा स्पष्ट झलकती है। दुष्काल जैसे मुश्किल के समय में भी वे मुनि को आहार देकर लाभित करती है। तथा संस्कारवान पुत्रों को भी जन्म देकर धर्मप्रभावना में उसने अदभुत योगदान दिया था। ४.१० श्रीमती :- ई. सन् की प्रथम शताब्दी दक्षिण भारत में कुरूमई नामक ग्राम में करमण्डु नाम के एक धनिक वैश्य रहते थे। उस वैश्य की पत्नी का नाम श्रीमती था। श्रीमती के यहाँ एक ग्वाला रहता था। एक बार जंगल में वह गाय चराने गया दावाग्नि से जलकर सारा जंगल भस्म होते देखा, मध्य के कुछ स्थान में हरियाली देखी, नजदीक जाने पर पता चला कि यह किसी मुनिराज का स्थान है, वहाँ पेटी में आगम ग्रंथ रखे हुए थे, वह आदर भाव से उन आगम ग्रंथों को घर ले गया तथा कुछ दिनों के पश्चात् वे सभी आगम पुनः मुनि को लौटा दिये। वही बालक श्रीमती की कुक्षी से पुत्र रूप में पैदा हुआ। माता श्रीमती पुत्र को पालने में झुलाती हुई कहती थी 'शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोसि संसार माया परिवर्जितोसि’। माता के इन शुभ संस्कारों के फलस्वरूप बालक प्रतिभासंपन्न प्रकांड पंडित के रूप में विख्यात हुआ। यही पुत्र आगे चलकर दिगंबर संप्रदाय के महान् आचार्य कुंदकुंदाचार्य के रूप में जैन धर्म की भारी प्रभावना कर गये ।२ माता जैसा चाहे वैसा ही रूप अपने संतान को दे सकती है। श्रीमती के धर्म संस्कारों से पुत्र सिंचित किया गया, उसी का प्रतिफल था शासन को सुयोग्य आचार्य की प्राप्ति हुई। ४.११ वासुकी (ई. सन् की प्रथम शती) तमिल भाषा के विश्वविख्यात ग्रंथकार तिरूवल्लवर की पत्नी थी। उनका वैवाहिक जीवन अत्यंत सुखमय था। एक बार एक मुनि ने इनके दाम्पत्य जीवन की सफलता का रहस्य पूछा। उन्होंने साधु को कुछ दिन अपने यहाँ रहने के लिए कहा, साधु वही रहने लगे। एक दिन तिरूवल्लुवर ने अपनी पत्नी को मुट्ठिभर नाखून तथा लोहे के टुकड़ों का भात पकाने को कहा। वासुकी ने लेशमात्र भी संदेह न करते हुए वैसा ही किया। उसी प्रकार एक बार ठंडे भात को बहुत गर्म है, मेरा तो छूते ही हाथ जल गया पति के ऐसा कहने पर वह शीघ्र आई और पंखा झलने लगी। एक बार गर्मी से तप्ती हुई दोपहर को, घना अंधकार बताकर पति ने दीपक जलवाया। वासुकी ने बिना हिचकिचाहट के शीघ्र दीपक जला दिया। इन सभी बातों को देखकर साधु समझ गया कि जब पति-पत्नी में पूर्ण एकता हो और लेश मात्र संदेह न हो तभी वैवाहिक जीवन सुख का सागर बन सकता है। यह देख साधु बोले “मैं आपके सुखी जीवन का मर्म समझ गया हूँ"। इतना कहकर मुनि अपने स्थान पर चले गये। पति के प्रति पतिव्रता पत्नी की श्रद्धा का यह अपूर्व उदाहरण है। इसी प्रकार जब तक पूर्ण विश्वास न हो, तब तक धर्म आराधना कठिन है। वासुकी का जीवन आदर्श पत्नी के स्वरूप को उजागर करने वाला है। ४.१२ औवे : (ईस्वी सन् के प्रारंभ में) औवे सुप्रसिद्ध प्राचीन तमिल कवयित्री थी। वह एक जैन राजकुमारी थी, और बाल ब्रह्मचारिणी थी। निःस्वार्थ समाज की सेवा सुमधुर वाणी और नीतिपूर्ण उपदेशों के लिए आज भी वह तमिल भाषा भाषियों के लिए माता औवे के रूप में स्मरणीय पूज्यनीय बनी हुई है। कवियित्री एवं समाज सेविका के रूप में जीवन यापन करना, इनका महत्वपूर्ण योगदान है। ४.१३ कण्णकी : (ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी) ___ ईसा की द्वितीय शताब्दी में तमिल के प्रसिद्ध ग्रंथ 'शिलप्पदिकारम्” की यह कथा है। यह महाकाव्य है। इसके रचयिता ल्लंगोवाडिगल है, जो संभवतः जैन कवि थे। चोल राज्य की राजधानी पुहार नगर के महान् वणिक परिवार की यह कन्या थी। उसका विवाह उसी नगर के एक वणिक् के पुत्र कोवलन से हुआ था। कोवलन माधवी नर्तकी के रूप पर मुग्ध होकर अपनी संपत्ति खो बैठा, पूर्ण गरीबी की अवस्था में घर लौटा। उसकी पत्नी कण्णकी ने स्नेह के साथ उसे व्यापार आरंभ करने के लिए उत्साहित किया। कण्णकी के पास कुछ आभूषण शेष थे। उन्होंने अपने नगर को छोड़कर मदुरा में जाकर आभूषण बेचने का निश्चय किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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