________________
200
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
मार्ग में जैन साधुओं के आश्रम में उन्हें कौन्ती नाम की साध्वी मिली। वह उन दोनों के साथ चलने को राजी हो गई। लम्बी यात्रा के पश्चात् वे मदुरा पहुंचे और एक गडरियें की स्त्री के पास ठहरे। कोवलन अपनी स्त्री के पैर का शिलप्पयदिकारम अर्थात् नुपूर लेकर उसे बेचने के लिए शहर में गया। स्वर्णकार को नुपूर दिखलाया। स्वर्णकार उस नुपूर को राजा के पास ले गया और नुपूर को रानी का बतलाकर कोवलन को प्राणदण्ड दे दिया। कण्णकी ने सुना दूसरा नुपूर लेकर राजा के पास पहुँची। राजा को अपनी भूल महसूस हुई और निर्दोष कोवलन का वध करने के पश्चाताप में उन्होंने प्राण त्याग दिये। कण्णकी ने मदुरा नगरी को श्राप दिया कि वह अग्नि से भस्म हो जाये, नगर जलकर भस्म हो गया। कण्णकी स्वर्ग में जाकर अपने पति से मिल गई। शीलवती कण्णकी की स्मति में मंदिर बनवाने का वर्णन प्राप्त होता है। ३५ कण्णकी के शील की तेजस्विता नारी जगत के लिए प्रेरक है। ४.१४ कंचनमाला : ई. पू. की दूसरी, तीसरी शती.
विदिशा मध्य प्रदेश प्रांत की श्रेष्ठी पुत्री का नाम कंचल माला था। देवोपम रूप गुणसंपन्न सम्राट् कुणाल की वह रानी थी। वह अपने पति की एक मात्र पत्नी थी। पति की बड़ी प्यारी थी। उसने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था सम्प्रति। कंचनमाला भी जैन धर्म की उपासिका थी। पुत्र सम्प्रति ने जैन धर्म की उन्नति हेतु बहुत कार्य किये। इतिहास में जैन धर्म की अमर कीर्ति फैलाने वाले सम्प्रति जैसे धर्म संस्कारवान् पुत्र को जन्म देना कंचनमाला का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ४.१५ असंध्यमित्रा : ई. पू. दूसरी तीसरी शती.
असंध्यमित्रा विदिशा के एक जैन श्रेष्ठी की रूप गुण संपन्न कन्या थी तथा भारत के महान सम्राट अशोक महान् की पत्नी थी। वह जैन धर्म की उपासिका थी, असंध्यमित्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसका नाम रखा गया कुणाल", कुणाल जैसे सुयोग्य शासक को पैदा करने वाली असंध्यमित्रा जैसी सहनशील माता ही थी। असंध्यमित्रा का सर्वोपरि योगदान इस रूप में है कि उसने जैन धर्म प्रभावक सुसंस्कारी पुत्र को जन्म दिया जो अपनी सहिष्णुता के लिए जगत् विख्यात् बना। ४.१६ मणक की माता : लगभग ई. पू. की पांचवी शती.
राजगही में शय्यंभव भट्ट ब्राह्मण निवास करते थे। शय्यंभव भट्ट ने गर्भवती नवयुवती का परित्याग कर दिया एवं आचार्य प्रभव के चरणों में उन्होंने दीक्षा धारण की। शय्यंभव पत्नी से सखियाँ पूछती “बहन ! गर्भ की संभावना है? वह संकुचित हो कहती है 'मणयं अर्थात् कुछ है। भट्ट पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया माता द्वारा उच्चरित ध्वनि के आधार पर उसका मणक नाम रखा गया। बालक आठ वर्ष का हुआ उसने माँ से अपने पिता के विषय में पूछा माँ ने पुत्र से पिता द्वारा जैन मुनि बनने का वत्तान्त सुनाया। पुत्र पिता का अचानक चंपा नगरी में मिलन हुआ। शय्यंभव ने मणक को परिचय दिया कि वह उसके पिता का अभिन्न मित्र है। शय्यंभव ने मणक को अध्यात्म बोध दिया, मणक ने दीक्षा अंगीकार की। आचार्य शय्यंभव चतुर्दश पूर्व के धारक थे। मणक की अल्पायु जानकर शय्यंभव ने पूर्यों का निहण किया, दशैवकालिक सूत्र की रचना की। मणक ने छ: महीने तक संयम पालन किया।३८ शय्यंभव भट्ट की पत्नी का आदर्श त्याग था, जिसने एकाकी रहकर अपने पुत्र एवं पति को धर्म मार्ग पर बढ़ने में सहयोग दिया। ४.१७ श्राविका शामाढ्या : ई. सन् की पांचवी शती.
भट्टिमव की पुत्री का नाम शामाढ्या था। वह गहमित्रपालित की धर्मपत्नी थी। कोट्टियगण की विद्याधरी शाखा के आचार्य दत्तिल की वह गहस्थ शिष्या थी। सम्राट् कुमारगुप्त के राज्य में इस जिन भक्त श्राविका ने मथुरा में एक जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी। इससे उस काल की स्त्रियों में धार्मिक रूचि दष्टिगत होती है, यही इनका योगदान है। ४.१८ श्रीदेवी : ई. सन् की पाँचवी - छठी शती.
श्रीदेवी कर्नाटक निवासी ब्राह्मण माधवभट्ट की पत्नी थी। श्रीदेवी की प्रेरणा से माधवभट्ट ने जैन धर्म स्वीकार किया था। श्रीदेवी के भाई का नाम पाणिनी था। श्रीदेवी ने उनको भी जैन बनने की प्रेरणा दी पर उन्होंने जैन धर्म स्वीकार नहीं किया। वे मंडीगुंडी गाँव में वैष्णव सन्यासी बन गए। श्रीदेवी के पुत्र दिव्य विभूति आचार्य देवनंदी (पूज्यपाद) थे। उन्होंने विद्वान् पाणिनी के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org