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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास अवशिष्ट व्याकरण ग्रंथ के अधूरे कार्य को उनकी आज्ञा से ही पूर्ण किया। श्रीदेवी की पुत्री का नाम कमलिनी था। उसका विवाह गुणभट्ट नामक ब्राह्मण विद्वान् के साथ हुआ। कमलिनी के पुत्र का नाम नागार्जुन रखा गया था। इस प्रकार एक माता सुसंस्कारी होने से समस्त परिवार धर्म रस से सराबोर बना। ४.१६ पूर्णमित्रा : ई. पू. की द्वितीय शती. पूर्णमित्रा कलिंग के राजा खारवेल की अग्रमहिषी थी, और राजा हस्तिसिंह की पुत्री थीं। पूर्णमित्रा ने मंचुपुरी की गुफा का निर्माण जैन मुनियों के उपयोग के लिए कराया था। तथा महारानी ने इन गुफाओं में लेख उत्कीर्ण करवाए थे। रानी पूर्णमित्रा जैन धर्म एवं सिद्धांतों पर अटूट श्रद्धा रखते हुए जैन साधु-साध्वियों का विशेष आदर करती थी। महारानी पूर्णमित्रा ने धर्म प्रभावना तथा संतों के आवास निवास की व्यवस्था के लिए स्वतंत्र रूप से निर्णय लेकर गुफा निर्माण करवाया व जिन शासन की प्रभावना की। ४.२० रानी उर्विला : ई. पू. की द्वितीय शती. रानी उर्विला मथुरा नगरी के राजा पूतिमुख की रानी थी। किसी समय एक प्राचीन स्तूप को लेकर राजा की पत्नियों में आपसी संघर्ष होने लगा। राजा की दूसरी पत्नी बौद्धधर्मानुयायिनी थी। उसने स्तूप पर अपना कब्जा जमा लिया। रानी उर्विला ने दूर-दूर से जैन विद्वानों को बुलाकर शास्त्रार्थ करवाया और अथक छानबीन के बाद यह सिद्ध किया कि यह स्तूप जैनों का ही हैं। इस शुभ अवसर पर धार्मिक उत्सव मनाये जाने के पश्चात् रानी ने अन्न-जल ग्रहण किया।२ रानी उर्विला की सूझ-बूझ तथा सत्य को युक्ति पूर्वक प्रमाणित करवाना तथा जैन धर्म प्रभावना में सहयोगी बनना एक अपूर्व कदम है। ४.२१ लांछन देवी : ई. पू. की चतुर्थ शती. पाटलीपुत्र के नंदराजा महापद्म के महामंत्री श्रमणोपासक शकडाल की पत्नी का नाम लांछन देवी था। वह परम धर्मोपासिका थी, प्रतिभासंपन्न सन्नारी थी। उसी के धर्म संस्कारों का तथा बुद्धिमानी का पुण्य प्रभाव था कि उसकी प्रथम पुत्री यक्षा कठिन से कठिन पद्यों को एक बार सुनकर स्मति में धारण कर लेती थी। दूसरी पुत्री यक्षदत्ता दो बार, तीसरी पुत्री भूता तीन बार, चौथी पुत्र भूतदत्ता चार बार, पाँचवी पुत्री सेना पाँच बार, छठी पुत्री वेना छः बार सातवीं पुत्री रेणा सात बार, सुनकर कंठस्थ कर लेती थी। लांछनदेवी के दो पुत्र थे, स्थूलीभद्र और श्रीयक ।३ लांछन देवी ने धर्म प्रभावक संतानों को जन्म देकर जैन परंपरा के विकास में भारी योगदान दिया है। ४.२२ सुप्रभा : ई. पू. ३१७ चतुर्थ शती. सुप्रभा राजा नंद की पुत्री थी। पराजित राजा नंद अपनी पुत्री सुप्रभा को रथ में साथ लेकर राजधानी से दूर जा रहा था। रथ में बैठी हुई सुप्रभा की दष्टि वीर चंद्रगुप्त पर पडी। पुत्री के आकर्षण एवं विषम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राजा नंद ने सुप्रभा का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया। ई. पू. ३१७ में पाटलीपुत्र में चंद्रगुप्त को सम्राट् घोषित किये जाने पर उसकी रानी सुप्रभा को अग्रमहिषी का उच्च स्थान दिया गया। शत्रु राजा की पुत्री होते हुए भी उसे अग्रमहिषी होने का गौरव मिला, यह उसके विशिष्ट गुणों का ही परिणाम था। सुप्रभा श्रमणोपासिका थी, पिता के समान वह भी आचार्यों तथा साधुओं को आदर की दष्टि से देखती थी। ४.२३ कोशा : ई. पू. ३५७.३१२ चतुर्थ शती. कोशा मगध सम्राट् नवम नंद के महामात्य शकडाल के पुत्र आचार्य स्थूलभद्र की अनन्य भक्त श्राविका थीं। कोशा बड़ी चतुर, वाकपटु, अवसरज्ञ, अवसरानुकूल नैसर्गिक अभिनय कला में निष्णात गणिका थीं। अतः शकड़ाल ने भोगों से विरक्त स्थूलभद्र को गहस्थ मार्ग की ओर आकृष्ट करने के लिए कोशा के संसर्ग में रखा। दोनों का पारस्परिक आकर्षण अन्ततोगत्वा उस चरम सीमा तक पहुँच गया कि बारह वर्ष पर्यन्त उन दोनों ने दासियों के अतिरिक्त किसी अन्य का मुख तक नही देखा था। कालान्तर में स्थूलभद्र विरक्त हो आचार्य संभूति विजय के शिष्य बने। वे एक बार कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास व्यतीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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