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महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
करने आये। कोशा ने मुनि को काम भोगों की ओर आकृष्ट करने का विफल प्रयास किया, किंतु मुनि स्थूलीभद्र की उत्कृष्ट इंद्रियदमन शक्ति को देखकर कोशा ने मुनि से क्षमा माँगी, स्वयं श्राविका के बारह व्रतों को धारण कर विशुद्ध सेवा भक्ति करने लगी। मुनि स्थूलभद्र के गुरू ने उनकी इस साधना को “दुष्कर दुष्करकारी” बताया। एक मुनि को गुरू की प्रशंसा पसंद नहीं आई, उन्होंने जिद्द कर गुरू से अनुमति लेकर कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास हेतु पहुँचे। कोशा ने मुनि को षड्रस भोजन कराया। मुनि की परीक्षा हेतु कोशा अति मनोरम एवं आकर्षक वेशभूषा से मुनि के सम्मुख उपस्थित हुई। मुनि ने काम विव्हल हो भोगों की याचना की। कोशा ने कहा - आप अपने मनोरथ को पूर्ण करना चाहते हो तो नेपाल देश के राजा क्षितिपाल के पास जाइए वे साधुओं को रत्नकंबलों का दान करते हैं। आप उसे लेकर आइए। अपनी कामाग्नि को शांत करने के लिए बीहड़ रास्तों को पार कर चोरों से मुकाबला कर कोशा के हाथों में मुनि ने रत्नकंबल थमाया। कोशा ने उस रत्नकंबल से अपने पैरों को पोंछकर उसे गंदी नाली के कीचड़ में फैंक दिया। मुनि ने आश्चर्य पूर्वक कहा – महामूल्यवान रत्नकंबल को तुमने इस अशुचिपूर्ण कीचड़ में फैंक दिया, तुम मूर्ख हो । कोशा ने तुरन्त उत्तर दिया, आप एक महामूढ़ व्यक्ति की तरह इस रत्नकंबल की तो चिंता कर रहे हो, अपने चरित्र-रत्न को अत्यंत अशुचिपूर्ण पंकिल गहन गर्त में गिरा रहे हो। कोशा की बोधप्रद कटूक्ति को सुनकर मुनि को अपने पतन पर पश्चाताप हुआ, उन्होंने कोशा वेश्या के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की और कठोर तपश्चरण का संकल्प किया। गुरू चरणों में उपस्थित होकर संपूर्ण सच्चा विवरण बताकर क्षमायाचना की, प्रायश्चित्त ग्रहण कर विशुद्धि की, और कामविजेता स्थूलीभद्र की तारीफ की। इस प्रकार कोशा ने एक मुनि को साधना पथ पर स्थिर किया।
वी. नि. सं. १५६ में मगधपति नंद ने अपने एक सारथी के रथ संचालन कौशल पर प्रसन्न हो उसे पारितोषिक के रूप में कोशा–वेश्या प्रदान की। श्राविकाव्रत पर संकटपूर्ण स्थिति आई समझकर कोशा ने बड़ी चतुराई से काम लिया, अपनी अदभुत कला
। प्रसन्न किया, सारथी ने कोशा को वर माँगने को कहा। कोशा ने सारथी से कहा "न आपकी कला कठिन है, न मेरी कला कठिन है, निरन्तर अभ्यास किये जाने पर इससे भी कठिन कार्य किये जा सकते हैं।" मेरे निरन्तर सहवास में बारह वर्षों तक स्थूलिभद्र भोग भोगते रहे, दीक्षित होने के बाद यहाँ चातुर्मास में षड्रस भोजन करते हुए चित्रशाला में संयमपूर्वक रहते हुए अजेय कामदेव पर विजय प्राप्त की। उनसे प्रेरणा लेकर मैंने श्राविका व्रत अंगीकार किया है। संसार का प्रत्येक पुरुष मेरे सहोदर के समान है। कोशा की बात सुनकर रथिक निषण्ण (स्तब्ध) रह गया। कोशा से मुनि स्थूलीभद्र का परिचय प्राप्त कर संसार से विरक्त हो गया और उनके पास दीक्षित हो श्रमणाचार का पालन करने लगा। स्थूलभद्र का स्वर्गगमन वी. नि. सं २१५ में राजगह के समीप वैभारगिरि पर हुआ। कोशा ने गणिका के रूप में कला का चतुर्मुखी विकास किया। श्राविका बनकर एक मुनि के जीवन का उद्धार किया। महासाधक स्थूलीभद्र के प्रति सच्ची आस्थाशील बनी। अनेक साधकों की भी उनके प्रति आस्था बढ़ाई। उसने इतिहास में अपना दुर्लभ कीर्तिमान स्थापित किया, जो स्वर्णाक्षरों में अंकित है। ४.२४ नागिला : ई. पू. की छठी शती
__नागिला नागदत्त एवं वासुकी की कन्या थी। नागिला का विवाह मगध जनपद के सुग्राम नामक ग्राम में हार्जव नामक (रहठउड़ो) राष्ट्रकूट और रेवती के पुत्र भवदेव के साथ हुआ था। भवदेव के बड़े भाई भवदत्त ने युवावस्था में ही आचार्य सुस्थित के समीप दीक्षा अंगीकार की थी। मुनि भवदत्त के पदार्पण के समाचार सुनकर नव विवाहिता नागिला को अर्द्धश्रंगारितावस्था में ही छोड़कर सबके मना करने पर भी भवदेव शीघ्रता से भवदत्त के पास पहुँचा भावविभोर हो अपना मस्तक मुनि के चरणों पर रख दिया। मुनि भवदत्त ने घत से भरा अपना एक पात्र भवदेव के हाथों पर रख दिया। समस्त ग्रामवासी साधुओं को कुछ दूरी तक पहुँचाकर लौट आए। लेकिन भवदेव, मुनि की आज्ञा न मिलने से मुनि भवदत्त के पीछे पीछे आचार्य सुस्थित तक पहुँच गया। आचार्य श्री के पूछने पर मुनि भवदत्त ने भवदेव को प्रव्रजित किया। भोग मार्ग की ओर उठे हुए चरण त्याग मार्ग पर चल पड़े। कालान्तर में मुनि भवदत्त ने अनशनपूर्वक समाधि के साथ नश्वर शरीर का त्याग किया। सौधर्मेंद्र के सामानिक देव बने।
मुनि भवदत्त के स्वर्गगमन के पश्चात् भवदेव के मन में नागिला को देखने की बड़ी तीव्र उत्कंठा जागत हुई। स्थविरों की आज्ञा लिये बिना ही अपने ग्राम सुग्राम की ओर चल पड़ा। ग्राम के पास पहुँच कर वह एक चैत्य घर के पास विश्राम हेतु बैठ गया। थोड़ी ही देर में नागिला ने एक ब्राह्मणी के साथ प्रवेश किया एवं मुनि को वंदन नमस्कार किया। मुनि भवदेव ने अपने पूर्व
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