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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
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२.२७.७ मृग सुंदरी :- मृग पुर नगर के सेठ जिनदत्त की पुत्री थी, अन्य मतावलंबी धनेश्वर ने छलपूर्वक जैन धर्म का ढ़ोंग रच कर मृग सुंदरी को अपनी पत्नी बनाया। मृग सुंदरी के तीन नियम थे। पहला था, जिनेंद्र भगवान् की स्तुति के बाद ही कुछ खाना पीना, दूसरा निग्रंथ श्रमणों को प्रतिलाभित करके ही खाना पीना, तीसरा सूर्योदय के दो घड़ी बाद से सूर्यास्त की दो घड़ी पहले ही खान पान की समस्त क्रियाएं समाप्त कर लेना। उसने गुरूदेव से लिए नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन किया। ससुराल वाले उसके नियम पालन में विघ्नरूप बने किंतु वह अपने नियमों में दृढ़ रही। उसके ससुराल वालों ने जब देखा कि एक संपूर्ण परिवार रात्रि में सर्प गिरे हुए विषाक्त भोजन खाने से मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब उन्हें नियमों की उपयोगिता का भान हुआ। और वे भी धर्माभिमुख हुए। नियम दढ़ता के कारण वह अगले जन्म में ऐसी शील संपन्ना नारी बनी जिसके स्पर्श मात्र से राजकुमार का कुष्ठ रोग दूर हो गया तथा वह भी जिन धर्मानुयायी बन गया। उसी राजकुमार के साथ विवाह होने से वह राजरानी बनी और आयु के अंत में संयम का पालन करके उसने अपनी आत्मा का कल्याण किया ।३६६
२.२७.८ भवानी :- पूर्वजन्म में अभक्ष्य भक्षण से वह बीमार हुई। गुरूणीजी से पूर्वभव की घटना सुनकर अभक्ष्य का उसने त्याग किया। फलस्वरूप अगले जन्म में वह मंत्री की पुत्री बनी। रसना इंद्रिय को वश में करने के कारण वह अमोघवादिनी और परम बुद्धिमती बनी। वह इतनी भाग्यशालिनी थी कि उसके जन्म लेते ही देश में अकाल की मंडराती भीषण काली छाया सुकाल की सुखद चंद्ररश्मियों में परिवर्तित हो गई। युवावस्था में अनेक धूर्तों को वाद में पराजित करके अपने देश का उसने गौरव बढ़ाया, कालांतर में संयम अंगीकार कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुई।३९७
२.२७.६ झणकारा :- झणकारा श्रेष्ठीपुत्र लीलापत की पत्नी थी। कई रूप लोभी कापुरुषों द्वारा झणकारा का अपहरण किया गया। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी झणकारा ने अपने बुद्धिबल एवं आत्मबल से शील धर्म की रक्षा की एवं अंत में दीक्षित
हुई।३६८
२.२७.१० सुरूपा :- गगन धूली की पत्नी थी। गगन धूलि के गले की माला सुरूपा के शील के प्रभाव से मुझौती नहीं थी। राजा विक्रमादित्य ने मूलदेव और शशीभत नामक विश्वस्त सेवकों को परीक्षा हेतु भेजा दोनों असफल हुए और स्वयं फंस गये। पिक्रम राजा ने सती की जयजयकार की एवं उससे क्षमा याचना की।३६६
२.२७.११ शुभमती :- अवंती के राजा विक्रमादित्य की रानी थी। राजकुमारी के रूप में युक्ति पूर्वक उसने शील की रक्षा
२.२७.१२ तिलकमती:- सेठ जिनदत्त एवं जिनदत्ता सेठानी की पुत्री थी तथा कनकपुर के राजा कनकप्रभ की रानी थी। तिलकमती के जन्म के कुछ महीनों के बाद ही उसकी माँ की मत्यु हो गई। तथा विमाता बंधुमती ने तिलकमती को हानि पहुँचाने
का विफल प्रयत्न किया। तिलकमती के पुण्योदय से वह राजा कनकप्रभ की रानी बनी। मुनि से पूर्वभवों का वत्तान्त सुनकर, तितकमती ने श्राविका व्रतों का आराधन किया तथा सुगंधदशमी व्रत की आराधना की। ईशान नामक दसरे स्वर्ग में दो सागर की आयुवाली देव बनी, आगामी भव में उसे मोक्ष लाभ होगा।४०१
२.२७.१३ सती कमला :- भृगुकच्छ के राजा मेघरथ एवं रानी पद्मावती की पुत्री तथा सोपारपुर के राजा रति वल्लभ की रानो थी। सागरद्विपीय राजा कीर्तिध्वज ने सती कमला का अपहरण कर लिया। उसे लोहे की जंजीरों से जकड़वाकर एक अंधेरी कोठरी में डलवा दिया। कमला के शील के प्रभाव से बेंड़ियाँ कच्चे धागे की तरह टूट गई राजा कीर्तिध्वज को माफ कर कमला ने उन्हें भाई बनाया। शील की जयजयकार हुई।०२।
२.२७.१४ बंधुमती :- श्रेष्ठी रतिसार की पुत्री थी, तथा कंचनपुर के श्रेष्ठीपुत्र बंधुदत्त की पत्नी थी। राजा ने चोरी के झूठे आरोप में बंधुदत्त को पकड़ा एवं उसे शूली की सजा दे दी। बंधुमती के कंगन चुराने के आरोप मे बंधुदत्त पकड़ा गया। सेठ रतिसार ने राजा को वस्तुस्थिति से ज्ञात करवाया कि यह मेरा दामाद है। कालांतर मे सुयश नामक ज्ञानी मुनिराज पधारे । रतिसार ने जंमाई को अकारण चोर बताने का कारण पूछा। मुनि ने बताया कि पूर्वजन्म में बंधुमती और बंधुदत्त माता और पुत्र थे। कठोर वचनों का प्रयोग करने से इस जन्म में यह फल मिला है। यह सुनकर सेठ रतिसार ने दीक्षा अंगीकार की तथा दोनों बंधुदत्त एवं बंधुमती ने श्राविका व्रतों की आराधना की।४०३
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