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महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
४.४२ कुण्डवे : ई. सन् की तीसरी - ५ वीं शती.
कुण्डवे राजा चोल की बहन थी। तमिलनाडु के दक्षिण आरकाट में ग्राम थिरूनरूनकोण्डे के निकट पहाड़ी पर जिनगिरि नामक तीर्थ क्षेत्र है। उस तीर्थ पर कुण्डवे ने पानी की एक टंकी बनवाई थी, जो आज भी विद्यमान है।६४ ४.४३ गंगा : ई. सन् की छठी शती.
चित्रकूट नगर (चित्तौड़) नरेश जितारि के राज्य समय में शंकरभट्ट नामक ब्राह्मण निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम गंगा था। उनके पुत्र का नाम हरिभद्र था। हरिभद्र ने अपने विद्वत्ता के बल पर राजा जितारि के राज पुरोहित पद को प्राप्त किया था। चतुर्दश ब्राह्मण विद्याओं पर उनका विशेषाधिपत्य था। उनकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी। साध्वी याकिनी महत्तरा के ज्ञान से प्रभावित होकर इन्होने दीक्षा धारण की।६५ ४.४४ चामेकाम्बा : ई. सन् की छठी शती.
कर्नाटक के कलचुम्बरु (जिला अत्तोली) से प्राप्त एक शिलालेख में वर्णन आता है कि पट्टवर्द्धिक कुल की तिलकभूता, गणिका जन में प्रसिद्ध चामेकाम्बा नाम की श्राविका की प्रेरणा से चालुक्य वंश के (२३ ३) तेइसवें राजा अम्मराज द्वितीय (विजयादित्य षष्ठ) ने सर्वलोकाश्रय जिन भवन (जिन मंदिर) की मरम्मत के लिए बलहारिगण, अड्डुकलिगच्छ के अर्हनंदि मुनि को कलचुम्बरू नामक ग्राम दान में दिया था। इस वंश के राजाओं ने जैन धर्म के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। ४.४५ दुर्लभ देवी : ई. सन् की पाँचवी शती.
सौराष्ट की राजधानी है वल्लभी। दुर्लभदेवी वल्लभी नरेश शिलादित्य की बहन थी। दुर्लभदेवी के मामा जिनानंदसूरि थे। दुर्लभदेवी स्वयं जैन धर्म की उपासिका थी। दुर्लभदेवी के तीन पुत्र थे, अजितयश, यक्ष और मल्ल । गुरू भक्ति एवं गुरू सेवा में वह आनंद का अनुभव करती थी। एक बार भरूच में बिराजमान जिनानंदसूरि के उपदेश को श्रवण कर, दुर्लभदेवी ने तीनों पुत्रों सहित दीक्षा अंगीकार की।६७ ४.४६ मदनावती : ई. सन् सातवीं शती.
कलिंगनरेश बौद्धों की महायान संप्रदाय के आस्थावान् राजा हिमशीतल की जिनभक्त राजमहिषी मदनावती थी। कार्तिकी अष्टान्हिका के दिन निकट थे। रानी रथोत्सव समारोह पूर्वक मनाना चाहती थी। राजा ने आदेश दिया कि यदि कोई जैन विद्वान्
स्त्रों में पराजित कर देंगे तो जैनों को रथ का उत्सव मनाने दूंगा। रानी तथा जैन बंधु चिंतित हुए। रानी सहित सभी ने जैनाचार्य भट्टाकलंकदेव के सामने समस्या रखी। उन्होंने बौद्धों को शास्त्रों में पूर्णरुप से पराजित किया। बौद्ध सुदूर पूर्व के भारतीय राज्यों एवं उपनिवेशों में चले गए। जैनों ने बड़े उत्साह से यह विजयोत्सव एवं अपना धर्मोत्सव मनाया ६८
भगवान् महावीर के श्रमण-श्रमणियों के लिए निर्दोष स्थान दात्री थी सुश्राविका
जयंति। वह परम विदुषी सन्नारी थी। प्रभु महावीर का धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् इस साहसी नारी ने अनेकानेक तात्विक प्रश्न पच्छा की जिनके उत्तर
आज भी सम्यक् ज्ञान की दिशाएँ उद्घाटित करते हैं।
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