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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 371 कई जैनधर्मप्रभावक दीवान आदि हुए है। इनमें धर्मप्रभाविका महिलाएँ आदि भी अवश्य हुई होंगी किंतु उनके वर्णन में महिलाओं के कोई स्पष्ट विवरण नामोल्लेख आदि उपलब्ध नहीं होते। कुछ प्रसिद्ध श्रेष्ठी परिवार आधुनिक काल में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अठारहवीं शताब्दी के मुर्शिदाबाद घराने के बंगाल के सुप्रसिद्ध जगतसेठ श्रीमान् फतेहचंदजी के पुत्र या पौत्र जगतसेठ श्री शुगनचंदजी हुए हैं। सेठ सुगनचंदजी के पुत्र या पौत्र संभवतः सेठ श्री डालचंदजी थे, वे कारणवश वाराणसी में आ बसे । उनकी पत्नी रत्नकुंवर बीबी का मायका भी मुर्शिदाबाद में ही था। वह बड़ी विदुषी थी तथा कवियित्री भी थी। उसने "प्रेमरत्न" नामक काव्य ग्रंथ की रचना की थी। बुंदेलखंड के झाँसी जिले की महरौनी तहसील में स्थित कुम्हेडी अपरनाम चंद्रापुरी ग्राम के मंजु चौधरी की पत्नी का नाम नगीनाबाई था। वह विदुषी, सुलक्षणा, एवं धर्म परायणा थी। नगीना बाई ने भट्टारक सुरेंद्रकीर्ति की प्रेरणा से ज्येष्ठ-जिनवर-पूजा-व्रत कथा पूरी करके उसका उद्यापन भी किया था। मंजु चौधरी का भानजा था भवानीदास चौधरी, जिनकी पत्नी थी चम्पो बाई। उसने सन १७८४ और १८०५ ईस्वी में लला-बजाज द्वारा दो ग्रंथो की प्रतिलिपियाँ करायी थी। भवानी दादू के छोटे भाई तुलसी दादू की दो पुत्रियाँ थी, जिनमें से छोटी मुक्ताबाई थी। उसकी पुत्री श्रीमती सोनाबाई श्री हीरालाल मोदी की पत्नी थी। उसने १८४० ईस्वी में पचास धार्मिक रचनाओं के संग्रह की प्रतिलिपि करायी थी। उसकी भाभी धूमाबाई ने लगभग उसी समय खण्डगिरी का छोटा मंदिर बनवाया था। १६वीं शताब्दी में ब्रजगोत्री खण्डेलवाल जैन चंदेर के चौधरी सिंघई श्री सभासिंहजी की धर्मपत्नी श्रीमती कमलाजी थी, वह बड़ी ही कार्यकुशल, उदार और धर्मोत्साही थी। ईस्वी सन् १८१६ में चंदेरी से आठ मील दूर अतिशयक्षेत्र "थूबौनजी", तपोवन में इन्होंने एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था तथा उसमें भगवान् आदिनाथजी की देशी पाषाण की ३५ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। इसी शती में सिंधिया राजा की महारानी बैंजाबाई ने मंदिर निर्माण के लिए द्रव्य दिया था। जिससे सेठ मनीराम ने मथुरा में द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मंदिर बनवाया तथा चौरासी पर जंबूस्वामी का मंदिर भी इन्होंने बनवाया था। इसी प्रकार उन्नीसवीं शती में ही जगतसेठ के वंशज श्रीमान् डालचंद की विदुषी भार्या बीबी रतनकुँवरि हुई थी। मेवाड़ में शाह हीराचंदजी की पत्नी बिजलीबाई हुई थी, जो सुशीला और धर्मपरायणा थी। जिनकी हेमकुमारी एवं मंछाकुमारी नाम की धर्मसंस्कारमयी दो पुत्रियाँ थी। बीसवीं शती में कर्मठ धर्म सेवी एवं समाज सेवी ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजी हुए थे, जिनकी धर्मपरायणा सुपुत्री महिलारत्न मगनबेन थी। इसी प्रकार धर्मकुमार की विध्वा पत्नी बालिका चंदाबाईजी संस्कृत भाषा तथा धर्मशास्त्रों की शिक्षा लेकर आगे चलकर ब्रह्मचारिणी पंडिता चंदाबाई बनी तथा आरा के प्रसिद्ध बालाश्रम की संस्थापिका एवं संचालिका हुई थी। जीवनपर्यंत वह स्त्री शिक्षा एवं समाज सेवा में रत रही थी। इसी काल में कुछ ऐसी श्रद्धाशील श्राविकाएँ भी हुई हैं जो स्वयं तो धर्म के प्रति समर्पित थी ही, उनकी पावन प्रेरणा से उनकी संतान भी धर्म के प्रति समर्पित हो गई थी। इस कड़ी में क्रियोद्धारक पूज्य श्री लवजी ऋषिजी की माँ फूलांबाई का नाम उल्लेखनीय है। वह वीरजी बोरा की सुपुत्री थी। उसने अपने पुत्र को प्रेरणा देकर यति बजरंगजी से जैनागमों का ज्ञान करवाया। ज्ञान का आश्चर्यकारी प्रभाव बालक पर पड़ा, वे करोडों की संपत्ति त्यागकर संयम के महापथ पर बढ़े और क्रियोद्धार किया। इसमें माँ फूलांबाईजी की प्रेरणा की ही प्रबलता थी। इसी परंपरा में आगे चलकर श्राविका हुलसादेवी के लाल आचार्य आनंद ऋषिजी हुए। माँ हुलसाजी ने अपने पति के स्वर्गवास के पश्चात् खिन्नचित्त नेमिचंद्र को भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानार्जन की ओर बढ़ाया। माँ ने गुरू रत्नऋषि का संपर्क पुत्र नेमिचंद्र को करवाया एवं प्रतिक्रमण सीखने की प्रेरणा की। इसी ज्ञान ने नेमिचंद्र को वैराग्योन्मुख बनाया। दीक्षित होकर आगे वे संघनायक आचार्य श्री आनंद ऋषिजी के नाम से विख्यात हुए। बीसवीं शती में माता बालूजी हई हैं। माता बालूजी ने अपने पुत्र को त्याग और वैराग्य के पथ पर आगे बढ़ाया। वही पुत्र आज आचार्य श्री महाप्राज्ञजी के रूप में शासन की प्रभावना कर रहे हैं। संवत् १८८५ में श्राविका गुलाब बहन की प्रेरणा से मुर्शिदाबाद निवासी बाबू किशनचंद जी और श्री हर्षचंद जी ने पुण्डरीक देवालय से दक्षिण की तरफ एक चंद्रप्रभु स्वामी का छोटा देवालय बनवाया। खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी ने उसकी प्रतिष्ठा करवाई। इसी प्रकार संवत् १८८६ में सेठ श्री वखतचंद खुशालचंदजी के पौत्र श्री नगीनदासजी की पत्नी ने अपने पति की प्रेरणा से हेमा भाई की टौंक पर एक देवालय बनवाया। उसने चन्द्रप्रभू स्वामी की एक प्रतिमा भी अर्पण की जिसकी प्रतिष्ठा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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