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________________ 370 सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ कर्नाटक देश में मैसूर (महिशूर, म्हैसूर) का ओडेयर वंश भी प्राचीन गंगवंश की ही एक शाखा थी। प्रारंभ में यह वंश पूर्णतया जैनधर्म का अनुयायी था। कालांतर में राजाओं द्वारा शैव-वैष्णवादि हिंदूधर्म अंगीकार कर लिये जाने पर भी मैसूर के राजा स्वयं को श्रवणबेलगोला और उसके गोम्मटेश के रक्षक समझते रहे, उन्हीं की पूजा-भक्ति भी करते रहे तथा अन्य प्रकार से भी जैनधर्म एवं जैनों का पोषण करते रहे। काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण श्री सेनवो सायन्न और श्रीमती महादेवी के पुत्र जिनभक्त हिरियन्न १६०६ ई. के लगभग गोम्मटस्वामी के चरणारविंद की वंदना कर स्वर्गवासी हए थे। १६७३ ई.में श्रीमान पटसामि और देवी रम्भा जी के धर्मसंस्कारों के प्रभाव से उनके पत्र चेन्नन जी ने श्रवणबेलगोल की विंध्यगिरि पर समुद्दीश्वर चन्द्रप्रभ स्वामी का मण्डप, एक कुंज (उद्यान) और दो सरोवर बनवाए थे तथा १६७४ ई. में उन सबके संरक्षण के लिए उसने जिन्नयेन हल्लिग्राम भेंट कर दिया था। र नरेश श्री चामराज ओडेयर, श्री देवराज ओडेयर, श्री कृष्णराज ओडेयर आदि राजाओं ने जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक धार्मिक कार्य किये थे। १७६६-६७ ईस्वी में मैसूर के श्री राजमंत्री जी नंजराज के आश्रित सेनापति हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुलतान का सारा जीवन अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए ही बीता। उन्नीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री देवचंद्र जी पंडित हुए थे, तथा महाराज चामराज की महिषी महारानी रम्भा देवी परम विदुषी एवं जैन धर्म की पोषक थी। छठे अध्याय में १६ वीं से २० वीं शताब्दी तक की उन श्राविकाओं का उल्लेख किया गया है, जिनका वर्णन शिलालेखों में, ग्रंथ-प्रशस्तियों में, हस्तलिखित ग्रंथो में आता है। इस काल में श्राविकाएँ भक्ति रस में डूबकर ही नहीं रह गई, अपितु उनमें ज्ञान रूचि का विकास भी होने लगा था। इस काल में श्राविकाओं ने अध्ययनार्थ शास्त्र की प्रतिलिपियाँ आचार्यों, साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा करवाई थी तथा उन्हें श्राविकाओं श्रीमती पदमसिरिजी श्रीमती महासिरीजी व श्रीमती मानिकीजी को प्रदान की थी। श्रीमती तिपुरू, श्रीमती मदना तथा श्रीमती अमरी ने बाहुबली चरित्र लिखवाया एवं रत्नाजी को प्रदान किया। श्रीमती पीथी, श्रीमती लाड़ी व श्रीमती पद्मसिरीजी ने दसलक्षणव्रत उद्यापनार्थ प्रद्युम्न चरित्र लिखवाया। सोलहवीं शती में श्राविका श्रीमती हीराबाईजी तथा श्रीमती हंसाजी के पठनार्थ तपागच्छ आचार्य हेमविमलसूरि ने स्थूलीभद्र एकवीसो की रचना की। पटुबाई पठनार्थ चहुंगति चौपाई लिखवाई गई। वाल्ही पठनार्थ अभयकुमार श्रेणिक रास की रचना की गई थी। इसी प्रकार १६वीं शती की ही श्राविका श्रीमती नारू, श्रीमती वरसिणि, श्रीमती साई ने मनिसंदर के उपदेश से श्री हरि विक्रमचरित्र लिखा। इसी प्रकार श्रीमती माजाटी एवं श्रीमती सोनाई ने सवर्ण अक्षरों में नंदीसत्र की प्रति लिखकर मुनि श्री लावण्यशीलगणि को प्रदान की। १८वीं शती में उदयपुर मेवाड़ में भोजराज की पत्नी तथा १६वीं शती में मेहता श्री लक्ष्मीचंदजी की विध्वा पत्नी बड़ी ही बुद्धिमती, कर्मठ और स्वाभिमानिनी थी। उसने कष्ट उठाकर भी अपने पुत्रों का पालन पोषण किया, जो बड़े होकर राज्य सेवा में नियुक्त हुए। वे थे जोरावरसिंह तथा जवानसिंह। मेवाड़ (उदयपुर) राज्य में राणा फतेहसिंह (मत्यु १६३१ ईस्वी) के समय तक अनेक राजमंत्री तथा उच्च पदस्थ कर्मचारी जैनी होते रहे और उदयपुर के नगर सेठ भी प्रायः जैनी ही होते रहे। ___ श्राविका पुंजाजी, जातुजी, सुताजी, कुंआरी के पठनार्थ चरणनंदनगणि ने कुमारपाल रास की रचना की थी। श्राविका लखा पठनार्थ पद्महंसगणी ने नेमिरास की रचना की थी। श्राविका पुण्यजयगणि की प्रेरणा से चुनाई, अमराई के पठनार्थ जिनभद्रसूरि पट्टाभिशेकरास की रचना की गई थी। सुश्राविका चमकू पूरी, रूपिणिके वाचनार्थ अभयकुमार श्रेणिक रास की रचना तपागच्छ के श्री कमल चारित्र गणि ने की थी। १६वीं शती की श्राविका जाई आधी ने पं. तिलकवीरगणि के लिए श्री सिद्धहेम शब्दानुशासनम् प्रति ४२ को लिपिबद्ध किया था। सुश्राविका पवयणी, सुहावदे, लक्ष्मी, लवणदे ने रत्नकरण्ड शास्त्र लिखवाकर मुनि हेमकीर्ति को प्रदान किया। १६वीं शती में सुश्राविका कावलदे, लाछी, लाडी, दमयंती, करणादे, सरो ने सम्यक्त्व कौमुदी लिखवाकर ब्रह्मवूच को प्रदान की। सुश्राविका गुणसिरि, सु. केलुदेवी ने श्रीमती ललतादे, नयणसिरि ने प्रवचन सार प्राभत वत्ति लिखवाकर मुनियों को प्रदान की। सुश्राविका पुरी, चोखा, राता, लाड़ी, सहजू ने बाई पदमसिरि के लिए हरिषेण चरित्र लिखवाया। १८वीं शती में जैसलमेर राज्य के भाटी राजपूत वंश का राजा मूलराज (मूलसिंह) था। कुचक्रियों ने राजा को कारागार में कैद कर युवराज को गद्दी पर बिठा दिया। किंतु लगभग तीन मास के उपरान्त ही एक वीर महिला के सहयोग से राजा बंदीगह से मुक्त हुआ तथा पुनश्च सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। २०वीं शती तक मारवाड़ (राजस्थान) के जोधपुर, जयपुर, भरतपुर आदि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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