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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
का जीवन यापन किया तथा अंत समय तक उन नियमों पर दढ़ रही । जैन आचार्य श्री विजयधर्मसूरीजी से प्रभावित होकर वह इस धर्म से जुड़ी। उसने जैनधर्म की प्रभावना के क्षेत्र में साहित्य सजन आदि का उल्लेखनीय कार्य किया है। इस अध्याय के अंतर्गत उल्लेखनीय अन्य कई श्राविकाएँ ओर भी हुई हैं। किंतु विस्तार भय से हमने उन शेष श्राविकाओं को आगे के सातवें अध्याय के अंतर्गत रखा है।
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सत्तरहवीं शताब्दी के मेहता श्री जयमल श्री जोधपुर के मेहता श्री अचलोजी के पौत्र थे । तथा नरेश श्री सूरसिंहजी के शासनकाल में गुजरात देशस्थ बड़नगर के सूबेदार थे। तदनंतर फलौदी के शासक नियुक्त हुए थे तथा श्रीमती सरूपदे और श्रीमती सुहागदे नाम की उनकी दो पत्नियाँ थी। प्रथम पत्नी से नैणसी श्री नयसिंह, श्री सुंदरदासजी, श्री आसकरणजी, और श्री नरसिंहदासजी चार पुत्र हुए थे। दूसरी पत्नी से श्री जगमालजी नाम का पुत्र पैदा हुआ था। श्रीमती सरूपदे का बहुत बड़ा योगदान इस रूप में रहा कि उसने मूता नैणसी जैसे अत्यंत कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, युद्धवीर, सैन्य संचालक, सुकवि, विद्यानुरागी तथा इतिहासकार पुत्र को जन्म दिया। मूता नैणसी के तीन पुत्र थे- श्री करमसी, श्री वैरसी और श्री समरसी। श्री करमसी की दो विध्वा पत्नियाँ थी जो राज्य संकट के समय अपने पुत्र श्री संग्राम सिंह एवं श्री सामंतसिंह के साथ किसी प्रकार बचकर भाग निकली। ये दोनों पुत्र आगे चलकर मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह के पुत्र श्री अजितसेन की राजसेवा में नियुक्त हुए थे ।
ईस्वी सन् १७५१ में उदयपुर में ही वहाँ के सेठ श्री कालुवालालजी और सेठ श्री सुख जी की विदुषी पत्नियाँ श्रीमती मीठीबाई एवं श्रीमती राजबाईजी ने अपने हाथ से "वसुनंदि श्रावकाचार" की प्रथम प्रतियाँ लिखी थी। जिसकी भाष्य टीका, सेठ बेलाजी की प्रेरणा से साहित्यकार, नीतिपटु, राज्यकार्यकुशल जयपुर राज्य के बसवा नगर निवासी श्री दौलतराम कासलीवाला ने की थी। इसी जयपुर राज्य में अपनी पुत्री श्रीमती नगीनाजी के व्रत उद्यापनार्थ उनके पिता गंगा गोत्रीय अग्रवाल सेठ सामाजी ने षोडशकारण यंत्र ईस्वी सन् १५६८ में प्रतिष्ठित कराया था ।
दक्षिण भारत के राज्यों में विजयनगर के प्रथम राजा श्री तिरूमलजी हुए थे। तदनंतर श्री रंगरायजी प्रथम, श्री वेंकटजी प्रथम, जी वेंकटी द्वितीय, श्री रंगरायजी द्वितीय, इत्यादि राजा क्रमशः हुए। पेनुगांडा के महाराजा वेंकट प्रथम के अधीन बोम्मण हेग्गड़े मुत्तूर का शासक था। उसकी शासनभूमि का स्वामी मेलिगे नगर निवासी वणिक् वर्धमान था । उसकी पत्नी श्रीमती नेमाम्बाजी थी तथा पुत्र बोम्मणश्रेष्ठी था, जिसने १६०८ ईस्वी में एक भव्य जिनालय बनवाकर उसमें अनंत जिन की स्थापना की थी तथा मंदिर के लिए दान दिया था ।
भैरसवोडेयर, (भैरव प्रथम ) की बहन एवं वीरवरसिंह वंगनरेंद्र की धर्मपत्नि श्रीमती गुम्मटाम्बा का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उसने इम्मडिभैररस - वोडेयर (भैरव द्वितीय) जैसे धर्म पुरूष को जन्म दिया, जिसने पाण्ड्यनगरी कारकल में मंदिर बनवाया, दान दिया तथा राजमहल के प्रांगण में स्थित चंद्रनाथ - बसदि तथा गोवर्धनगिरी पर स्थित पार्श्वनाथ बसदि में जिन पूजा की उत्तम व्यवस्था कर दी थी ।
तुलु देश के वेनूर ( वेणुरू) नगर में राज्य करने वाले अजिल राज्यवंश के संस्थापक तिम्मण अजित प्रथम हुए (ई. ११५४ -८०), उनका भानजा रायकुमार प्रथम उसका उत्तराधिकारी रहा, तत्पश्चात् उसका भानजा वीर तिम्मराज अजित चतुर्थ (१५५० - १६१० ई.) हुआ। उसकी जननी श्रीमती पांड्यदेवी तथा पिता श्री पाण्ड्य भूपति था। धर्मसंस्कारमयी माता पांड्यदेवी के सुसंस्कारों के प्रभाव से ही धर्मात्मा, वीर, प्रतापी, उदार पुत्र अजित चतुर्थ ने राजधानी वेनूर में कार्कल जैसी ही एक विशाल गोम्मटेश प्रतिमा का निर्माण कराया तथा १६०४ ईस्वी में वेनूर के सुप्रसिद्ध गोम्मटेश बाहुबली की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना समारोहपूर्वक हुई। यह कर्नाटक की बाहुबली जी की तीसरी विशाल मूर्ति है। उल्लेखनीय है कि गोम्मटेश की मूर्ति के सामने वाले द्वार के दोनों पावों में दो छोटे मंदिर हैं जो तिम्मराज की दो रानियों ने बनवाए थे। तिम्मराज स्वयं प्रतापी और कुशल प्रशासक था और उसके शासनकाल में राज्य का प्रभूत उत्कर्ष था । वेनूर राज्य का प्रदेश पुंजलिके भी कहलाता था । तिम्मराज के पश्चात् उसकी भानजी मधुरिकादेवी गद्दी पर बैठी। उसने १४८७ ईस्वी तक शासन किया। अपने राज्य काल में उसने संभवतया ईस्वी १६३४ में, वेनूर के गोम्मटेश का महामस्ताभिषेक महोत्सव किया था । तदनंतर कई अन्य शासक वेनूर की गद्दी पर क्रमशः बैठे जिनमें एक थी रानी पद्मलादेवी जो धर्मपरायणा थी ।
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