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________________ 256 आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ थे। हन्तूर नामक स्थान के एक ध्वस्त जिनालय में प्राप्त ११३० ई. सन् के शिलालेख से ज्ञात होता है कि उक्त प्रांत के तत्कालीन शासक बल्लालदेव की बहन राजकुमारी हरियब्बरसि ने अपने गुरू की प्रेरणा तथा भाई के सहयोग से स्वद्रव्य से हन्तियूर नगर में एक अत्यंत विशाल एवं मनोरम जिनालय बनवाया जो रत्नखचित तथा सुंदर मणिमय कलशों से युक्त उत्तंग शिखरोंवाला था। उक्त जिनालय में नित्य पूजा साधुओं के आहार दान, असहाय वद्धा स्त्रियों की शीत आदि से रक्षा हेतु आवास एवं भोजन आदि की सुविधा देने के लिए तथा जिनालय के जीर्णोद्धार आदि के लिए बहुत सी राज कर से मुक्त भूमि गुरू सिद्धांतदेव को दान स्वरूप प्रदान की थी । इस दानपत्र में राजकुमारी की तुलना सीता, सरस्वती आदि प्राचीन महिलाओं से की गई है तथा उन्हें पतिपरायण, विदुषी, और सम्यक्त्व चूड़ामणि लिखा है । इस दान में पिता महाराजा विष्णुवर्द्धन की सहमति थी।६३ ५.७५ आचल देवी : ई. सन् की १२ वीं शती. शिलालेखों में अन्य नाम आचियक्क, आचाम्बा भी पाये जाते हैं । आचलदेवी होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय, ब्राह्मणमंत्री चंद्रमौलि की जैन धर्मावलम्बिनी भार्या थी। उस रूप-गुण-शील संपन्न महिलारत्न ने ११८२ ईस्वी में श्रवण बेलगोला में बड़ी भक्तिपूर्वक एक अतिभव्य एवं विशाल पार्श्व जिनालय का निर्माण कराया था। आचियक्कन का संक्षिप्त रूप 'अक्कन' होने से यह मन्दिर "अक्कन-बस्ति" के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा आचलदेवी ने अपने गुरू देशीगण नयकीर्तिसिद्धांतदेव के शिष्य बालचंद्र मुनि के सान्निध्य में बड़े समारोहपूर्वक संपन्न करवाई थी । मंदिरों के उक्त नगर में यही एक मन्दिर होयसल कला का अवशिष्ट तथा उत्कष्ट नमूना है। सप्तफणी पार्श्वनाथ की पांच फुट उंची प्रतिमा के साथ धरणेंद्र-पद्मावती की साढ़े तीन फुट उंची मूर्तियां है। सुंदर जालियां चार चमकदान स्तंभ, कलापूर्ण नवछत्र और शिखर पर सिंह ललाट है। मंत्री चंद्रमौलि की प्रार्थना से (होयसल नरेश) वीर बल्लाल ने इस मन्दिर के लिए 'बम्मेयनहल्लि" नामक एक ग्राम प्रदान किया था। गोम्मटेश्वर की पूजा के लिए भी "बेक्क" नामक ग्राम को राजा से प्राप्त करके आचलदेवी ने दान कराया था। पति के कट्टर शैव भक्त होते हुए भी इस महिला ने उनसे पूरा सहयोग प्राप्त किया और पति ने भी अपनी धर्मात्मा जैन पत्नी आचलदेवी के धार्मिक कार्यों में पूरा सहयोग दिया एवं सच्चे अर्थो में धर्मपत्नि का कर्तव्य निभाया था। यह उसकी तथा उसके राज्य एवं काल की धार्मिक उदारता का परिचायक हैं।६४ ५.७६ माललदेवी : ई. सन् की ११ वीं शती, (कुप्पटूर) कुप्पडूर के ईस्वी सन् १०७५ के कन्नड़ शिलालेख के अनुसार माललदेवी कदम्ब कुल के महाराजा कीर्तिदेव की भी पट्टमहिषी थी। कुप्पटूर नामक नगर में उसने अतिभव्य पार्श्व देव चैत्यालय का निर्माण करवाया। अपने गुरू पद्मनंदि सिद्धांत देव से उस मन्दिर को सुसंस्कत करवाकर, वहां से साधुओं के गुणों के समान पूज्य ब्राह्मणों से उसका नाम "ब्रह्म जिनालय" रखवाया। कोटिश्वर मूलस्थान तथा वहां के १८ अन्य मंदिरों के पुरोहितों तथा वनवासी मधुकेश्वर को बुलवाकर उनका यथायोग्य सम्मान किया । उचित धनराशि (५०० होन्नु) प्रदान कर उनसे भूमियाँ प्राप्त की। जिनेंद्र देव की नित्य पूजा एवं साधुओं के आहार आदि की व्यवस्था के लिए महाराज कीर्तिदेव से "सिड्डणिवल्लिकों" नामक ग्राम प्राप्त किया और इन सबको अपने गुरू पदमनंदि सिद्धांतदेव को समर्पित किया था। ५.७७ पोचल देवी : ई. सन् की १२ वीं शती, शिलालेखों में अपर नाम पोचाम्बिका, पोचिकब्बे, पोचब्बे भी मिलता हैं। चामुण्डराय बस्ति में मंडप में उत्कीर्ण, ईस्वी सन् ११२० के शिलालेख में उल्लिखित है कि मार और माणकव्वे के पुत्र तथा होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के महादण्डनायक "एचि” या "एचिगांक की भार्या" पोचलदेवी थी। पोचलदेवी धर्मपरायणा सन्नारी थी, उसने अनेक धार्मिक कार्य किये, श्रवणबेलगोला में अनेक जिन मंदिर बनवाए। उनका पुत्र महाराज विष्णुवर्द्धन का प्रसिद्ध शक्तिशाली सेनापति "गंगराज" था, जिसने अपनी माता की स्मति में "कत्तले-बस्ति" नामक जिन मंदिर का निर्माण कराया था। अंतिम समय में शक संवत् १०४३ में संलेखनापूर्वक पांच पदों का उच्चारण करते हुए पोचलदेवी ने अपने देह का त्याग किया था। पोचलदेवी का उल्लेख अनेक शिलालेखों में हुआ है। गंगराज परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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