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________________ 14 होता था, जिसमें वधू भुना हुआ धान उछालकर अपने पति की दीर्घायु की कामना करती थी । पाणिग्रहण के समय वर भी वधू के दीर्घ जीवन और सौभाग्य के लिए प्रार्थना करता थी। मंत्र ब्राह्मण में एक मौलिक प्रसंग आता है, जिसमें वर वधू को कहता है। “तुम्हारा हृदय मेरे व्रतों, धार्मिक कर्तव्यों और आदेशों का पालन करें, बहस्पति तुम्हें आदेश - पालन की शक्ति दे" । एक श्लोक में कहा गया है कि "जो कुछ तुम्हारे हृदय में है वही मेरे हृदय में हो, और जो कुछ मेरे हृदय में हो, वही तुम्हारे हृदय में हो" । भावात्मक एकता की यह कामना भी कम स्तुत्य नहीं है। पति-पत्नी का यह आदर्श सर्वयुगीन महत्व रखता है। (ख) नारी श्रेष्ठत्व में हास: ऋग्वेद नारी के श्रेष्ठत्व का साक्ष्य है तो अथर्ववेद उसे कुछ निम्न करके ही प्रस्तुत करता है । अथर्ववेद के अनन्तर ही ह्रास का यह क्रम जारी होने लगा था ! ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है - "नारी निरींद्रिय (शक्तिहीन) होने से सोम की अनधिकारिणी एवं पापी पुरुष से भी गई बीती है।" आदि पूर्व पीठिका अथर्ववेद में कन्या जन्म को अहितकर और अशुभ माना जाने लगा । पुत्र की अपेक्षा पुत्री का महत्व घटने लगा । कन्या जन्म को रोकने के लिए प्रार्थनाएं होने लगी । पुत्र प्राप्ति के मंत्र भी अथर्ववेद में मिलते हैं। कन्या का उपनयन संस्कार वेदस्पर्श, मंत्रोच्चारणादि की साधिकारता पूर्ववत् चलते रहे। इस काल में विवाह पूर्व प्रेम - " पूर्व राग" के प्रसंगों के उल्लेख प्राप्त होते हैं । यह कन्या संबंधी माता-पिता के अधिकारों के ह्रास का प्रतीक रहा । ब्राह्म विवाह और गांधर्व विवाह भी इस युग में गोपनीय ढंग से होते थे। अथर्ववेद मंत्र प्रधान है। ये मंत्र, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि विषयों से संबंधित हैं। ऋग्वेद में दंपत्ति का अर्थ है - गहपति (एकवचन ) जबकि अथर्ववेद में इसका अर्थ पति-पत्नी लिया गया है, तथा दोनों के कर्तव्य भी संयुक्त हैं। सती होने की प्रवत्ति लुप्तप्राय होती जा रही थी, तथा विधवा विवाह ( पुनर्विवाह) के प्रसंग अधिक मिलते हैं। १.१.२ स्त्रोत- सूत्रों में नारी: I स्त्रोत सूत्र ऐसे ग्रंथ हैं जो वैदिक कर्मकांड व विवेचक हैं निर्धारक हैं। अतः इनमें यज्ञादि कार्यों में नारी की भूमिका का परिचय तो मिल जाता है किंतु सामाजिक स्थितियों का वर्णन प्राप्त नहीं होता । ब्राह्मण ग्रन्थों की धारणा का खण्डन करते हुए स्त्रोत में इस संदर्भ में वेदों में नारी की स्थिति की पुष्टि की और उसे यज्ञाधिकारिणी माना गया । स्मति में वर कहता है कि धर्म कार्यों में, संपत्ति प्राप्ति में ओर उचित इच्छा पूर्ति में पत्नी का पूरा अधिकार है। वेदों में नारी पति की अर्जित संपत्ति की अधिकारिणी कही गई है। वेदों में विवाह की आयु २४ वर्ष की मानी गई थी। किंतु गुप्तकाल में यह अपेक्षाकृत कुछ कम हो गई थी। माता को सर्वोच्च गुरू माना जाता था । माता का भरण पोषण करना पुत्र का अनिवार्य कर्तव्य था । व्यभिचारिणी स्त्री पति के लिए परित्याज्य हो सकती थी, किंतु पुत्र के लिए नहीं। उसके लिए माता किसी भी अवस्था में पतिता नहीं मानी गई थी। १.१.३ उपनिषदकाल में नारी: वेद के अनन्तर उपनिषदों का युग आया। ये वैचारिक ग्रन्थ हैं, जिनका मूल विषय दर्शन और विचार हैं। उपनिषदों में गतिक नारी के स्वरूप का आंकन कम और नारी तत्व का दार्शनिक विवेचन अधिक हुआ है। शक्तिमान् परमात्मा की शक्ति रूपा में उसका उल्लेख मिलता है। यह नारी तत्व, माया, प्रकृति, इच्छा, श्री आदि विविध रूपों में अंकित है। शक्ति और शक्तिमान् दोनों पर पर आश्रित हैं, दोनों का अस्तित्व अन्योन्याश्रित है। दोनों अभिन्न हैं और दोनों का समन्वय ही परिपूर्ण स्वरूप है। सामान्यतः विवाह संस्कार वयस्कों के लिए ही था । उस युग में ए मे प्रसंग भी प्राप्त होते हैं कि ब्राह्मण पुत्र का शूद्र पुत्री से विवाह संबंध हो गया था। सत्यकाम और जकाला का आख्यान इस युग की विशेषता को अंकित करता था जिसमें संतानें अवैध भी मानी जाती थी, किंतु उनके गुणों और प्रवत्तियों के आधार पर उन्हें वेदोप श ग्रहण करने के योग्य माना जाता था। जाकाला दासी कार्य करने के कारण शूद्रवत् थी । उसके पुत्र सत्यकाम में ब्रह्म प्राप्ति के उत्कृष्ट अभिलाषा थी । अतः आचार्य ने उसे ब्राह्मण स्वीकार कर आश्रम में प्रवेश दिया। पत्नी का रूप इस युग में धर्म कर्म में सहयोगिनी का रहा । वेदों में पत्नी का कर्त्तव्य पति की आज्ञानुवर्तिनी रहना बताया ग है। बहदारण्यक उपनिषद् में पति की आज्ञा का उल्लंघन करने वाली पत्नी को ताड़ना देकर भी बलपूर्वक आज्ञा पलवाई जाती थी । अन्य पुरुष द्वारा पत्नी के चाहने पर वह उस पुरूष के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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