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________________ 204 महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती में जाते हुए तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया, साथ वाले लोगों ने उसे अन्निका पुत्र के नाम से संबोधित किया । देवदत्त और अन्निकने माता-पिता को दर्शन दे प्रसन्न किया। अन्निका पुत्र कालांतर में दीक्षित हुए तथा केवलज्ञानी बनकर मुक्त हुए। अन्निका का ससुर एवं सास के प्रति स्नेह प्रशंसनीय है तथा संस्कारवान् पुत्र को पैदा करना एक महत्वपूर्ण योगदान है। ४.२८ देवदत्ता : ई. पू. की छठी शती. चम्पानगरी में देवदत्ता गणिका रहती थी, वह तेजस्विनी और समद्धिशालिनी थी। वह चौंसठ कलाओं में पंडिता थी। वह अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में निपुण थी तथा एक हजार गणिकाओं की स्वामिनी थी। नत्य, गीत और वाद्यों में मस्त रहती थी तथा राजा के द्वारा उसे छत्र चामर और बाल व्यंजनक प्रदान किया गया था। इस प्रकार देवदत्ता ने कलाओं के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया था। ४.२६ रूद्रसोमा : ईस्वी सन् की प्रथम शती. __रूद्रसोमा दशपुर नरेश उदायन की प्रसिद्धि प्राप्त राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी थी। रूद्रसोमा उदारहृदया, प्रियभाषिणी महिला थी। जैन धर्म की वह दढ़ उपासिका थी। उनके दो पुत्र थे रक्षित और फल्गुरक्षित। आर्य रक्षित विशिष्ट अध्ययन हेतु पाटलीपुत्र गये, रक्षित ने वहाँ रहकर वेद वेदांग आदि चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया पुनश्च रक्षित माँ के पास पहुँचा। माँ सामायिक कर रही थी, उसने आशीर्वाद देकर पुत्र का वर्धापन नहीं किया। जननी वत्सल रक्षित माँ के आशीर्वाद के अभाव में खिन्न चित्त हुआ। माँ ने सामायिक संपन्न की और पुत्र से कहा "बेटा जो विद्या तुझे आत्मबोध ने करा सकी उस विद्या से क्या लाभ ! मेरे मन को प्रसन्न करने के लिए आत्म कल्याणकारी जिनोपदिष्ट दष्टिवाद का अध्ययन करो।" आर्यरक्षित ने दष्टिवाद का अध्ययन कहां और किनसे पढ़ा जा सकता है ? यह प्रश्न किया । तब रूद्रसोमा ने बताया, दष्टिवाद के ज्ञाता आर्य तोषलिपुत्र नामक आचार्य हैं जो इक्षुवाटिका में विराज रहे है। पुत्र! तुम उनके पास जाकर अध्ययन करो। उस प्रवत्ति से मुझे शांति प्राप्त होगी। आर्य रक्षित ने मां की प्रेरणा से आचार्य तोषलिपुत्र के पास दीक्षित होकर दष्टिवाद का गंभीर अध्ययन किया। कालांतर में छोटा भाई फल्गुरक्षित माँ रूद्रसोमा की प्रेरणा से रक्षित मुनि के समीप आया। मां का संदेश उन्हें दिया कि माँ आपको बहत याद कर रही है। आप उन्हें दर्शन देकर उनका मार्ग प्रशस्त करो। आर्य रक्षित से बोध पाकर फलारक्षित मनि बन गए। स्वनगर आए, समस्त परिवार प्रतिबोधित हुआ।१ इस प्रकार माता रूद्रसोमा ने अपने पुत्र ममत्व को श्रेय मार्ग से जोड़कर समस्त परिवार का कल्याण सच्चे अर्थों में किया। ४.३० पुष्पचूला : ई. पू. की पांचवी शती. पुष्पचूला पुष्पभद्रा नगरी के राजा पुष्पचूल की रानी थी। वास्तव में ये दोनों पुष्पकेतु और पुष्पवती की संतान थे। राजा पुष्पकेतु ने दोनों संतान का स्नेह देखकर लोक नियम के विरूद्ध विवाह संबंध जोड़ा। पुष्पवती ने राजा के उस विवाह से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की। अनेक वर्षों तक तपश्चर्या की। अंत मे देवरूप में उत्पन्न हुई। पुष्पचूल एवं पुष्पचूला भोगों में सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। देवरूप से उत्पन्न हुई पुष्पवती ने पूर्व स्नेहवश पुष्पचूला को प्रतिबोध देने के लिए स्वप्न में उसे नरक के दश्य दिखाए। पुष्पचूला ने अन्निका पुत्र से उक्त स्वरूप के विषय में चर्चा की तथा नरक में जीव किस कारण जाता है इसका समाधान उनसे किया। सम्यक ज्ञान पाकर पुष्पचूला ने भी विरक्त होकर अन्निका पुत्र से दीक्षा अंगीकार की।२ पुष्पचूला ने व्रतों की आराधना से अपने जीवन को पवित्र बनाया। ४.३१ कुबेर सेना : ई. पू. की छठी शती. मथुरा नगर की गणिका का नाम था कुबेरसेना। एक बार वह गर्भवती हुई यथासमय एक पुत्र एक पुत्री रूप युगल संतान को उसने जन्म दिया। पुत्र का नाम कुबेरदत्त रखा तथा पुत्री का नाम रखा कुबेरदत्ता। गणिका व्यवसाय में संतान को बाधक समझकर उसने उनके गले में सूत्र के साथ उनके नाम वाली अंगूठी बांध दी और उन्हें बहुमूल्य रत्नों की दो गठरियों के साथ लकड़ी के संदूक में रख दिया। रात्रि के समय उन दोनों संदूकों को यमुना नदी के प्रवाह में बहा दिया। दो भिन्न श्रेष्ठिपुत्रों के यहाँ इनका पालन हुआ। युवावस्था प्राप्त होने पर दोनों को एक दूसरे के योग्य समझकर श्रेष्ठिपुत्रों ने धूमधाम से उन दोनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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