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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 205 परस्पर विवाह किया। विवाह के दूसरे दिन एक जैसी अंगूठी देखकर कुबेरदत्त ने अपने माता-पिता से इसका रहस्य पूछा । रहस्य खुला। कुबेरदत्ता ने संसार से विरक्त हो साध्वी दीक्षा अंगीकार की। कुबेरदत्त भी धन का पाथेय लेकर अन्य नगर जाने के लिए निकल पड़ा। मथुरा नगर जाकर कुबेरदत्त ने कुबेरदत्ता के साथ अपना संबंध जोड़ा। महासती कुबेरदत्ता ने विशिष्ट (अवधिज्ञान) ज्ञान से यह जाना, प्रतिबोध देने के लिए वह गणिका के भवन में ही स्थान की याचना कर वहाँ रहने लगी। कुबेरदत्त से कुबेरसेना को एक बालक की प्राप्ति हुई थी। उस बालक को कुबेरसेना बार-बार साध्वी कुबेरदत्ता के पास लाने लगी। कुबेरदत्ता ने उस बालक को दूर से ही दुलार भरे स्वर में हुलराना प्रारंभ किया तथा अपने साथ उसके अठारह रिश्ते बतलाये। यथा-माता, बुआ, बहन आदि। कुबेरदत्त चौंक गया उसने साध्वीजी से इसका समाधान माँगा। कुबेरदत्ता ने बतलाया मैं आपकी वही बहन हूँ जिसके साथ विवाह हुआ था एवं यह कुबेरसेना हमारी माता हैं। कुबेर सेना और कुबेरदत्त आश्चर्यचकित हुए। साध्वीजी से विस्तारपूर्वक समस्त वत्तान्त सुनकर कुबेरदत्त ने भी दीक्षा अंगीकार की एवं कुबेर सेना ने श्राविका धर्म अंगीकार किया। ५३ कुबेरदत्ता अपने साध्वी समुदाय में चली गई। कुबेर सेना ने श्राविका व्रतों का सम्यक् पालन किया व पवित्र जीवन व्यतीत किया। पवित्र रिश्तों को पवित्र बनाकर रखा यही इसका धर्म के प्रति अवदान है। ४.३२ भद्रा : ईसा पूर्व की ततीय शती. भद्रा श्रेष्ठी की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम अवंतिसुकुमाल था। एक बार आर्य सुहस्ति श्रेष्ठी पत्नी भद्रा के “वाहक-कुट्टी नामक स्थान में बिराजे थे। रात्रि के प्रथम प्रहर में वे "नलिनी-गुल्म” नामक अध्ययन का परावर्तन (स्वाध्याय) कर रहे थे। रात्रि का शांत वातावरण था। भद्रापुत्र अवंतिसुकुमाल अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ भवन की सातवीं मंजिल पर सोये हुए थे। उन्हें आर्य सुहस्ति का स्वर बड़ा कर्णप्रिय लगा। वे उसका अर्थ समझने के लिए बड़े ध्यान से सुनने लगे। चिंतन करते हुए उन्हें जातिस्मरण ज्ञान पैदा हुआ। उन्होंने देखा कि पूर्वभव मे वे नलिनी गुल्म विमान में देव थे। पुनः वही जाने की इच्छा से उन्होंने आर्य सुहस्ति के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के प्रथम दिन ही गुरू की अनुज्ञा लेकर कठोर तप हेतु श्मशान भूमि की तरफ बढ़े। कंकर पत्थरों से पैर लहुलुहान हुए। रक्त की बूंदों के निशान का अनुगमन करते एक क्षुधा पीड़ित अगालिनी ने अपने परिवार सहित मुनि के पैरों से प्रारंभ कर संपूर्ण शरीर के मांस का भक्षण किया। मुनि भावों की श्रेणी पर चढ़ते हुए कष्ट को समभाव से सहते हुए नलिनी गुल्म विमान में देव भव को प्राप्त हुए। देवताओं ने मत्यु महोत्सव मनाया एवं महानुभाव कहकर मुनि के गुणों की प्रशंसा की। दूसरे दिन भद्रा की पुत्रवधू मुनि के दर्शनार्थ गई। मुनि के विषय में आचार्य सुहस्ति से सुनकर घर आकर सबको सूचना दी। भद्रा माता श्मशान भूमि में जाकर मुनि के दाह संस्कार की संपन्नता के साथ ही बहुत रोई। मुनि के दाह संस्कार के साथ भद्रा विरक्त होकर दीक्षित हुई। एक पुत्रवधू को छोड़कर शेष समस्त पुत्रवधूएँ दीक्षित हुई। भद्रामाता ने पुत्र के प्रति सच्चा वात्सल्य का रिश्ता निभाया था ४ ४.३३ सुरसंदरी : ई. सन् की प्रथम शती. सुरसुंदरी धारावास के राजा वैरसिंह की रानी थी। उनकी दो संताने थी। पुत्री का नाम था सरस्वती और पुत्र का नाम था कालक कुमार । दोनों भाई बहन में परस्पर प्रगाढ़ प्रेम था। गुणाकार मुनि के उपदेश को सुनकर कालक कुमार संसार से विरक्त हुआ। इस भावना का प्रभाव बहन सरस्वती पर भी पड़ा। दोनों भाई बहन को माता-पिता ने दीक्षा की अनुमति दी। दोनों दीक्षित हुए। साध्वी सरस्वती के रूप पर मोहित होकर राजा गर्दभिल्ल ने उसका अपहरण किया। कालकाचार्य द्वितीय ने शकों की सैन्य शक्ति से अवधूत का वेश धारण कर युद्ध द्वारा गर्दभिल्ल को पराजित किया। साध्वी बहन को मुक्त किया ।५ सुरसुंदरी ने सुयोग्य संस्कारवान् पुत्र पुत्री को जन्म दिया जिन्होंने जिनशासन की प्रभावना में अपना बहुमूल्य सहयोग दिया। ४.३४ प्रतिमा : ई. सन् की प्रथम द्वितीय शती. अयोध्या नगर के निवासी श्री संपन्न श्रेष्ठी फूलचन्द्र की पत्नी का नाम प्रतिमा था। वह रूपवती और गुणवती थी। किंतु निस्संतान होने के कारण चिंतित रहती थी। उनसे कई उपाय संतान की प्राप्ति हेतु किये गये। एक बार उसने वैरोट्या देवी की आराधना में आठ दिन का तप किया। तप के प्रभाव से देवी प्रकट हुई। उसने कहा कि "तुम लब्धिसंपन्न आचार्य नागहस्ति के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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