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________________ 206 महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती पाद - प्रक्षालित उदक का पान करो, उससे तुम्हें पुत्र प्राप्ति होगी।" देवी के मार्गदर्शन से प्रसन्न हुई प्रतिमा भक्तिपूरित हृदय से उपाश्रय में पहुँची। एक मुनि के द्वारा उसने आचार्य नागहस्ति के दर्शन किए। आचार्य श्री ने कहा "तुम्हें दस पुत्रों की प्राप्ति होगी । प्रथम पुत्र तुमसे दस योजन दूर जाकर धार्मिक विकास करेगा, वीतराग शासन की गौरव वद्धि करेगा" अन्य पुत्र भी यशस्वी होंगे। प्रतिमा विनम्र होकर बोली- गुरूदेव मैं प्रथम पुत्र आपके चरणों में समर्पित करूँगी। काल क्रम के संपन्न होने पर प्रतिमा ने सूर्य जैसे तेजस्वी सुंदर पुत्ररत्न को जन्म दिया । पुत्र के गर्भकाल के समय प्रतिमा ने नाग देखा, अतः पुत्र का नाम नागेंद्र रखा। माता की ममता, पिता के वात्सल्यमय वातावरण में वह बड़ा हुआ । पुत्र जन्म से पूर्व ही वचनबद्ध होने से प्रतिमा ने अपने पुत्र को गुरु नागहस्ती के चरणों में समर्पित किया । ५६ धन्य है वह माता जिसने लम्बे समय से इच्छित संतान को गुरू चरणों में समर्पित किया, अपनी गुरु भक्ति का परिचय दिया । ४. ३५ सुनंदा : ई. सन् की प्रथम शती सन् ५७. अवंति प्रदेश के तुम्बवन नगर में वैश्य धनगिरि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम सुनंदा था। धनगिरि का मन प्रारंभ से ही विरक्त था । विवाह के बाद एक बार धनगिरि ने सुनंदा से दीक्षा की अनुमती मांगी। सुनंदा उस समय गर्भवती थी। पति के बार-बार प्रस्ताव रचाने पर सौम्यहृदया सुनंदा ने विवश हो दीक्षा की सहमति दे दी । धनगिरि ने शीघ्र ही दीक्षा धारण कर ली। गर्भ काल पूरा होने पर सुनंदा ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। जन्मोत्सव पर सुनंदा की सखियाँ आई थी । परस्पर वार्तालाप चल रहा था कि धनगिरि दीक्षा ग्रहण नहीं करते तो खुशी कुछ ओर ही होती थी। बच्चे ने ध्यानपूर्वक वार्तालाप को सुना और जाति स्मरण ज्ञान पैदा हुआ । चिंतन आगे बढ़ा। पिता की तरह मुझे भी प्रव्रज्या पथ पर बढ़ना श्रेयकर है किंतु माँ की ममता इसमें बाधक है। यह चिंतन कर बालक ने माँ की ममता शिथिल करने हेतु रूदन करना प्रारंभ कर दिया । सुनंदा हर प्रकार से बच्चे को स्नेह देकर रूदन बंद करना चाहती थी। किंतु बच्चा माँ के लिए दुःख का कारण बना। एक बार पिता धनगिरि सुनंदा के घर आहार लेने आए। सुनंदा ने बालक मुनि को इस शर्त पर समर्पित किया कि वह पुनः बालक की याचना नहीं करेगी। बालक, धनगिरि के पास जाकर शांत हुआ। सुनंदा दर्शनार्थ गई। प्रफुल्ल वदन बालक को देखा। मात वात्सल्य जागत हुआ। उसने मुनि से पुनः बालक की याचना की। मुनि ने शर्त याद करवाकर बालक को पुनः देने से इन्कार किया । निरूपाय सुनंदा राजा के पास पहुँची और न्याय मांगा। राजा ने गंभीर चिंतन किया और कहा - "बालक स्वेच्छा से जिसको चाहेगा, वह उसी का होगा दोनों पक्ष उपस्थित हुए । सुनंदा खिलौने व मिठाइयों का प्रलोभन बालक को दिया, दूसरी ओर मुनि धनगिरि ने रजोहरण रखा और कर्मरज को रजोहरण द्वारा हटाने का उपदेश दिया। बालक उछलता हुआ रजोहरण को हाथ में लेकर बैठ गया। मुनि धनगिरि को बालक प्राप्त हुआ । आर्य वज्र के नाम से, दीक्षित होकर बालक ने जिन शासन की महती उन्नति की। सुनंदा ने भी सच्चे मातत्व को निभाते हुए पुत्र व पति का अनुगमन कर दीक्षा अंगीकार की । ५७ सुनंदा ने धैर्य के साथ अपना जीवन व्यतीत किया था। उसने संस्कारवान सुयोग्य जिन शासन प्रभावक पुत्र को जन्म देने का लाभ प्राप्त किया था । ४.३६ दमयंती : ई. पू. की प्रथम शती. वह भावड़शाह के मित्र राघव की पत्नी थी। वह सौंदर्यशालिनी और गुणवान् थी। वह सदा सच्चाई के पथ पर बढ़ने वाले भावड़शाह एवं भाभी भाग्यवती की सहयोगीनी बनी, यह उसका उल्लेखनीय योगदान है। ४.३७ सूरजमुखी : ई. पू. की प्रथम शती. सूरजमुखी श्रेष्ठी सुन्दरदास की पुत्री तथा भावड़शाह की बहन थी। सौराष्ट्र के एक अन्य नगर नन्दपुर के श्रेष्ठ व्यापारी मूलकचंद की वह पत्नी थी। तीर्थ यात्रा पर जाते हुए भाई भावड़ और भाभी उससे मिलने आये। सूरजमुखी उन्हें देखकर प्रसन्न हई | भाई के द्वारा सब कुछ गंवा बैठने की स्थिति में वह चाहती थी कि उसके ससुराल वाले उसके भाई की मदद करे पर उसकी भावनाएं सफल इसलिए नहीं हुई कि पति सहित उसके ससुराल वालों को धन का गरूर था । वह दरिद्र अवस्था में भी भाई से सच्चा प्यार निभाती है। धन का नशा उसके प्रेम में दीवार नहीं बन सका । इस प्रकार सूरजमुखी के जीवन में नारी का निश्छल स्नेह छलकता है I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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