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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास का युग कहा जा सकता है। मुगल काल के सर्वश्रेष्ठ राजा अकबर को अपने तप के प्रभाव से प्रभावित करने वाली चम्पा श्राविका का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करने योग्य है। अकबर के निग्रह में इस श्राविका ने एक माह का दीर्घ तप कर प्रमाणित किया कि उसका तप सच्चा है तथा छ: माह का विगतकालीन कृत तप भी सच्चा तप था और इसके प्रेरक आचार्य हीर विजयसूरि है! तब आचार्य के संपर्क में आकर अहिंसा के मार्ग पर अकबर चल पड़े उनमें इस प्रेरणा के पीछे सुश्राविका चंपा बाई का ही निमित्त था। तत्पश्चात् औरंगजेब के राज्यकाल में जैनियों को भारी क्षति उठानी पड़ी। जैन मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित किया गया। उसका यह परिणाम सामने आया कि मध्ययुग में अमूर्ति पूजक संप्रदायों का विकास हुआ। फलतः इस काल में मंदिर और मूर्ति की अपेक्षाकृत साहित्य संरक्षण, साहित्य सर्जन और प्रसारण का कार्य महत्वपूर्ण बन गया। अनेक ग्रंथ-भंडारों की स्थापना इस काल में हुई। लोकाशाह ने अपनी धर्म क्रांति शास्त्रों का पुनर्लेखन करते हुए ही की थी। दिगंबर परंपरा में तारणपंथ, श्वेतांबर परंपरा में स्थानकवासी एवं तेरापंथ का विकास भी इसी कालक्रम में हुआ था। तारणपंथियों ने चैत्यालयों का निर्माण कर उसमें शास्त्र प्रतिष्ठित करना प्रारंभ कर दिया था, अतः श्राविकाओं का विशेष ध्यान भी साहित्य संरक्षण की ओर ही केंद्रित हुआ। आज हमें जैन ग्रंथों की जितनी पांडुलिपियाँ उपलब्ध होती है उनका लगभग सत्तर अस्सी प्रतिशत् भाग इसी काल का है। उनकी प्रशस्तियों में सर्वाधिक नाम श्राविकाओं के ही उपलब्ध होते है। अनेक श्राविकाओं के स्वपठनार्थ लिखे जाने वाले शास्त्रों के संदर्भ यह सचित करते हैं कि इस काल में श्राविकाओं में अध्ययन की एक विशेष रूचि जागत हो चुकी थी। श्राविका नारू, वरसिणि, साई ने मुनिसुंदरसूरि के उपदेश से श्री ह.ि विक्रम चरित्र लिखा, श्राविका माजाटी एवं श्राविका सोनाइ ने सुवर्ण अक्षरों में नंदीसूत्र की प्रति लिखकर लावण्यशीलगणि को प्रदान की। सिरेकंवरबाई ने अध्यात्म रामायण भाषा, राजबाई ने दस ठाणा विचार, बाई चंपा ने सदर्शन सेठ रा कवित्त, श्राविका खीमाबाईने गरूणी सज्झाय आदि की प्रतिलिपियाँ निर्मित कराई थी। इसी प्रकार जिन श्राविकाओं के अध्ययन के लिए ग्रंथ की प्रतिलिापे करवाई उसके भी निर्देश इस काल में ही ग्रंथ प्रशस्तियों में मिलते हैं। जैसे श्राविका अभयकुँवर बाईपठनार्थ उपासकदशांग सत्र की पाण्डुलिपि, गुलालदे पठनार्थ शालीभद्र चौपाई, बाई हबाई पठनार्थ प्रज्ञापना सूत्र मूल पाठ, रूपबाई पठनार्थ श्रीपाल-रास (सचिन), जसोदा पठनार्थ श्रावकातिचार, अरघाई कुंयरि पठनार्थ जंबूचरित्र चौपाई आदि ग्रंथों की प्रतिलिपियों के प्रसार में इन श्राविकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि इस युग में श्राविकाओं मे भी अध्ययन की रूचि का विकास हो रहा था। इस काल में कुछ भक्तिप्रवण श्राविकाएँ भी हुई हैं, जिनकी पावन प्रेरणा पाकर उनकी संतान त्याग पथ की पायेक बनी। उन श्राविकाओं में फूलाबाई का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपने पुत्र को जैनागमों का ज्ञान करवाने के लिए बजरंग यति जी के पास में भेजा, जिसके प्रभाव से पुत्र ने करोड़ों की संपत्ति का त्याग किया और क्रियोद्धारक लवजीऋषिजी के रूप में वेख्यात हुए। माँ हुलसा ने पुत्र नेमिचंद्र को गुरू रत्नऋषिजी के पास धार्मिक अध्ययन हेतु भेजा, पुत्र आचार्य आनंद ऋषिजी के रूप में जगत् विख्यात हुए। श्राविका बालूजी ने अपने पुत्र को वैराग्य रंग से अनुरंजित किया फलस्वरूप पुत्र नथमल आचार्य महाप्राज्ञ के रूप में शासन प्रभावक आचार्य हुए। इससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि इस युग में श्राविकाओं में अध्ययन की रूचि का विकास हो रहा था। भावना प्रधान होने के कारण श्राविकाएँ मुख्य रूप से भक्तिप्रवण होती थी, किंतु फिर भी इनमें ज्ञान रूचि का विकास इस तथ्य का संकेत देता है कि श्रद्धा के साथ उनमें विवेक का तत्व भी विकसित हो रहा था। इस अध्याय में ५३०० श्राविकाओं का उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अंतिम सातवें अध्याय से हमने आधुनिक काल का उत्तरार्द्ध ग्रहण किया है। इस युग में ई.सन् १८५७ गदर के पश्चात से ई.सन की बीसवीं शताब्दी तक की जैन श्राविकाओं का वर्णन हैं जिनमें उत्तर एवं दक्षिण भारत की श्राविकाएँ है। उनके द्वारा राजनीति, शिक्षा, समाज, संस्कृति, धर्म, कला, कम्प्यूटर आदि विभिन्न क्षेत्रों में दिए गए योगदानों की चर्चा की गई है। यह काल देश में राष्ट्रीय चेतना के पुनर्जागरण का काल हैं। इस काल में ही भारतीय जनता ने अंग्रेजों से अहिंसक संघर्ष कर स्वतंत्रता प्राप्त की थी। क्योंकि इस काल के प्रत्यक्ष दष्टा हमें मिल जाते हैं, अतः उनके विभिन्न क्षेत्रों के योगदान भी दिखाई देते हैं। इस अध्याय में हमने प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा, पत्र-पत्रिकाओं द्वारा श्राविकाओं के अवदानों को गूंथने का एक यथा संभव प्रयत्न किया है। इस काल में अनेक श्राविकाओं ने एम.ए., पी.एच.डी, डी.लिट् आदि परीक्षाएँ देकर एक महत्वपूर्ण विकास शिक्षा के क्षेत्र में किया है। इनमें डॉ. हीराबाई बोरदिया का नाम उल्लेखनीय है, इन्होंने जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ नामक शाधग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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