SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 726
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 704 हुई, उसी बीच जैन श्राविकाओं द्वारा उनके संरक्षण एवं पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग रहा। यह काल आचार्य हरिभद्रसूरि से प्रारंभ होकर अकबर प्रतिबोधक आचार्य हीरविजयसूरि आदि जैनाचार्यों का काल रहा है। यह जैनियों की प्रतिष्ठा का पुनर्जर्जनकाल रहा है । इस काल की विशेषता यह रही कि इसमें धनी निर्धन सभी प्रकार की श्राविकाओं ने शास्त्र ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ स्वद्रव्य व्यय करके बनवाई | मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, आदि मे जैन श्राविकाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इस काल में यह सत्य है कि कलापूर्ण अनेक जिन मन्दिर ध्वस्त हुए किंतु उसी काल में ओसिया, कुंभारिया, आबू, शत्रुंजय, राणकपुर के कलापूर्ण जिनमंदिरों का निर्माण हुआ। इसके पीछे तेजपाल की पत्नी अनुपमादेवी का, विमलशाह की पत्नी श्रीमती का, सांगण की पत्नी कर्पूरदे का महत्वपूर्ण सहयोग एवं प्रेरणा रही है। इस काल में उत्तर भारत में मांडवगढ़ के सेठ अमरशाह की पुत्री तथा जगडूशाह की पत्नी यशोमती आदि बारहवीं शताब्दी की दानवीर व्रतधारिणी श्राविकाएँ हुई है। इसी प्रकार इसी काल में पाहिनी देवी, भट्टी आदि सुश्राविकाओं ने महान् साहित्य के रचयिता आचार्य हेमचंद्र एवं महान् जैनाचार्य बप्पभट्टी जैसे तेजस्वी पुत्रों को शासन हेतु समर्पित किया एवं जैन धर्म की प्रभावना में महत्वपूर्ण सहयोग दिया। दक्षिण भारत में भी इस काल की श्राविकाओं का जैन संघ को जो अवदान रहा है वह अविस्मरणीय है । चामुण्डराय की माता काललदेवी ने अपने पुत्र को प्रेरित करके श्रवणबेलगोला जैसे भव्य कलाकेंद्र को विकसित किया था । श्रवणबेलगोला के निर्माण में जहाँ एक ओर काललदेवी की यह समुज्जवल यश गाथा फैल रही है, वही दूसरी ओर हम उस गुलिकायज्जी नामक श्राविका को भी विस्मत नही कर सकते, जिसकी छोटी कटोरी भर दूध ने गोम्मटेश्वर का महामस्तकाभिषेक सफल कर दिया था । उसकी भक्ति भावना की यश गाथा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उपसंहार उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत में भी इस काल की श्राविकाओं के अवदान को विस्मत नहीं किया जा सकता । दक्षिण में भी अनेक मंदिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में श्राविकाओं का महत्वपूर्ण अवदान रहा है। दक्षिण भारत के अनेक मठ और मंदिर उनके इस अवदान के प्रतीक रहे हैं। जिस प्रकार उतर भारत में इस युग का साहित्य लेखन एवं उसके प्रसार की प्रवति रही उसी प्रकार दक्षिण भारत में तमिल, कन्नड़ आदि भाषाओं में जैन साहित्य की रचना होती रही और उसके पीछे प्रेरक के रूप में ये श्राविकाएँ अपना कार्य करती रही । जैन संस्कृति के उन्नयन में मादेवी, अतिमब्बे, कुन्दाच्चि, शांतलादेवी आदि नामों के उल्लेख व इनके अवदानों को भुलाया नहीं जा सकता । इस युग में दक्षिण भारत में जैन साहित्यिक कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में जो कला का विकास हुआ है, इसके पीछे भी जैन श्राविकाओं का अवदान प्रमुख रहा है। अतिमब्बे ने अपने व्यय से पोन्नकृत शांतिपुराण की एक हजार प्रतियाँ और डेढ़ हजार सोने एवं जवाहरात की मूर्तियाँ बनवाई थी, धर्म प्रभाविका के रूप में अतिमब्बे का अद्वितीय स्थान है। विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी ने सवतिगंधवारण बस्ति नामक जिनमंदिर, उसकी सुव्यवस्था के लिए एक ग्राम बनवाया तथा तालाब का भी निर्माण करवाया था। परमगुल की रानी कुन्दाच्चि ने जिनालय बनवाए तथा धर्मसेविका के रूप में प्रसिद्ध हुई। गंगवाड़ी के राजा भुजबलगंग की महादेवी भी जैनमत की संरक्षिका थी । इस अध्याय में २३०७ श्राविकाओं का उल्लेख हुआ है। चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत कला साहित्य और संस्कृति के विकास में जैन श्राविकाओं ने जो अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय दिया है वह अविस्मरणीय है। इस युग में जहाँ उतर भारत में चैत्यवास और दक्षिण भारत में मठवास परंपरा विकसित हुई उन चैत्यों और मठों के संरक्षण संवर्द्धन आदि के कार्य मुख्य रूप से श्राविका वर्ग के द्वारा ही संपन्न होते रहे हैं। जिस प्रकार मंदिर का शिखर दिखाई देता है किंतु नींव ओझल रहते हुए भी उसका आधार ही है। इस अध्याय में नींव सम जैन धर्म की संरक्षिका श्राविकाओं के अवदानों को यथासंभव शब्दचित्र द्वारा चित्रित करने का विनम्र प्रयत्न अवश्य ही हुआ है। प्रस्तुत शोध प्रबंध के छठें अध्याय में हमने सोलहवीं शती से पूर्व आधुनिक काल पर्यंत की जैन श्राविकाओं के योगदान का वर्णन किया है। पूर्व आधुनिक काल से हमारा तात्पर्य वस्तुतः मुगलों के पतन और अनेक राजपूत राजाओं एवं अंग्रेजों के शासन-तंत्र की स्थापना के काल से है। विशेष रूप से इसमें ई. सन् १८५७ के गदर के पूर्व की जैन श्राविकाओं के अवदानों का उल्लेख करने का प्रयत्न किया है। मुगल राज्य की स्थापना के साथ ही भारतीय नारी जिसमें जैन नारी भी समाहित है अपनी अस्मिता को बनाये रखने में असफल हो गई। वह घर की चार दीवारी में कैद वासना की संतुष्टि का एक साधन मात्र बनकर रह चुकी थी। इस काल में रानी दुर्गावती और लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने आगे आकर नारी जागति का शंखनाद किया। इस काल को नारी जागरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy