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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
धर्माभिमुख थे। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में नारी का स्तर वद्धिंगत हुआ। वह क्रय-विक्रय की वस्तु न रहकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व हेतु संघर्षरत थी। इस प्रकार नारी जागरण को एक अंगड़ाई लेते हुए देखा जा सकता है। प्रस्तुत ततीय अध्याय १६३ श्राविकाओं के तपः पूत व्यक्तित्व से सुशोभित है।
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प्रस्तुत शोध प्रबंध का चतुर्थ अध्याय ई.पू. की तीसरी शती से ई. सन् की सातवी शताब्दी तक का वर्णन प्रस्तुत करता | इस काल की विशेषता यह है कि इसमें श्राविकाओं के अवदान संबंधी उल्लेखों के लिए अभिलेखीय एवं पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। इनमे सर्व प्राचीन है राजा खारवेल और मथुरा के अभिलेखीय पुरातात्विक साक्ष्य । इस अध्याय में तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् की जैन धर्म की स्थिति प्रदर्शित की गई है। तीर्थंकर महावीर का धर्म उत्तर एवं दक्षिण भारत के सुदूर अंचलों में फैला हुआ था । उड्रदेश के राजा यम ने सुधर्मा स्वामी से दीक्षा अंगीकार की तब उसकी पत्नी धनवती ने श्राविका के व्रतों को ग्रहण किया था। धनवती जैन धर्म की परम प्रचारिका एवं दढ़ श्रद्धालु थी। उसके धर्म प्रभाव से उसका परिवार ही नहीं अपितु उड्रदेश की समस्त प्रजा ही जैन धर्मानुयायिनी हो गई थी। नंदवंश के महामंत्री शकड़ाल की धर्मपत्नी लांछनदेवी जैन धर्मानुयायिनी थी, उसने स्थूलभद्र जैसे पुत्र तथा यक्षा आदि सात पुत्रियों को जन्म देकर जैन संघ की प्रभावना में अपूर्व सहयोग प्रदान किया है। ई.पू. की द्वितीयशती में चेदिवंश के सम्राट एल खारवेल की माता ऐरादेवी और पत्नी सिंधुला देवी परम जैन धर्म परायणा सुश्राविकाएँ थीं। उन्होंने राजा को बहत् मुनि सम्मेलन आयोजित करने के लिए प्रेरित किया। मुनियों की सेवा-शुश्रूषा की | सिंधुला देवी ने उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं का निर्माण भी किया। इस काल में अनेक गणिकाओं ने भी जैन धर्म का पालन किया था, जिनमें कोशा प्रमुख रूप से उभर कर आई है। उसने मुनि स्थूलभद्र का चातुर्मास अपने घर पर कराया। स्वयं बारह व्रतधारिणी श्राविका बन गई थी । यह तथ्य प्रमाणित करता है कि जैन संघ में पूर्व चरित्र की अपेक्षा वर्तमान जीवन की मनःस्थिति पर अधिक जोर दिया जाता था तथा स्थूलभद्र का कोशा के घर चातुर्मास करना इस तथ्य को प्रकाशित करता है कि जैनसंत नारी जाति के उत्थान के लिए तत्पर बन चुका था । कोशा एवं स्थूलभद्र की सात बहनों का कथानक इस बात को स्पष्ट करता है। मथुरा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अमोहिनी, लोणशोभिका, शिवामित्रा, धर्मघोषा, कसुय की धर्मपत्नि स्थिरा, जया, जितामित्रा, वसुला आदि ने जैन धर्म के उत्थान के लिए मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, आयागपट निर्माण आदि कार्य संपन्न किये। उस युग में धर्माराधना का सबसे बड़ा साधन मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण, उनकी प्रतिष्ठा करना ही माना जाता था । मथुरा के एक संस्कृत अभिलेख ओखरिका और उज्झतिका द्वारा वर्धमान स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित किये जाने एवं जिन मंदिर के निर्माण किये जाने का उल्लेख आया है। ई.पूर्व की तीसरी चौथी शताब्दी से लेकर ई.सन् की छठी शताब्दी के इतिहास में गंगवंश की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक उपाय किये। ये रानियाँ मंदिरों की व्यवस्था करती, नये मंदिर और तालाब बनवाती एवं धर्म कार्यों के लिए दान की व्यवस्था करती थी। उस राज्य के मूल संस्थापक दडिग और उनकी भार्या कम्पिला ने अनेक जैन मंदिर बनवाए थे तथा मंदिरों की पूर्ण व्यवस्था की थी । श्रवणबेलगोला के शक संवत् ६२२ के अभिलेखों में नागमती, धण्णकुतारे, बिगुरवि, नमिलूर संघ की प्रभावती, दनितावती एवं व्रतशीलादि संपन्न शशीमति गोति के समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। इन सन्नारियों ने श्राविका व्रतों का पालन किया था। ई.पू. की दूसरी तीसरी शती में सम्राट् अशोक के पौत्र सम्प्रति की माता एवं पत्नी दोनों ही जैन श्राविका थीं। उन्हीं के प्रभाव एवं संस्कारों से संप्रति ने जैन धर्म की उन्नति हेतु सैंकड़ों ऐतिहासिक कार्य किए। सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य की धर्मपत्नि सुप्रभा एवं माता मुरा दोनों जैन धर्मानुयायिनी एवं विशिष्ट गुणवती थी । अशोक की अन्य पत्नी असंध्यमित्रा भी जैन थी, उसका पुत्र कुणाल भी जैन धर्मोपासक था। इस प्रकार चतुर्थ अध्याय के महावीरोत्तर काल में उत्तर एवं दक्षिण भारत की १३० गुरुभक्त श्राविकाओं में ईश्वरी देवी, चाणक्य की माता चणकेश्वरी, वासुकी श्रीमती, कंचनमाला, कण्णकी, रानी उर्विला, श्रीदेवी, पूर्णमित्रा, भद्रा, अन्निका, कुबेरसेना, पुष्पचूला, सुनंदा, रूद्रसोमा, देवदत्ता, धारिणी, प्रतिमा, सुरसुंदरी प्रभति अनेक सन्नारियों ने श्राविका व्रतों का पालन किया तथा जैन धर्म की प्रभावना में अपना संपूर्ण सहयोग दिया। इन सबका विशेष विवरण प्रस्तुत अध्याय में किया गया है।
शोध प्रबंध का पांचवां अध्याय ई. सन् की आठवीं से ई.सन् की पंद्रहवीं शताब्दी तक की श्राविकाओं के योगदान की चर्चा से सम्पन्न होता है। इस काल में विशेष रूप से यवनों के आक्रमण के फलस्वरूप जहाँ एक ओर हमारी पुरा संपदा की भारी क्षति
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