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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
साध्वी प्रतिभाश्री जी 'प्राची' द्वारा लिखित शोध प्रबन्ध का आद्यन्त गहन चिन्तन किया । प्रबन्ध निम्न सात अध्यायों में समायोजित किया गया है
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अभिमत
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युगानुकूल भारतीय - परम्परा में नारी की स्थिति का चित्रण विस्तार से किया गया है।
प्रागैतिहासिक प्रथम तीर्थंकर से बाईसवें तीर्थंकर कालीन विविध नारियों का जैन धर्म को योगदान प्रतिपादित है ।
अंतिम दो तीर्थंकरों के काल (ई.पू. आठवीं शताब्दी से ई.पू. छठी शताब्दी) को माध्यम बनाकर श्राविकाओं का वर्णन है ।
ई.पू. छठी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक की श्राविकाओं की धर्म प्रभावना का उल्लेख है ।
ई. आठवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी को माध्यम बनाया गया है।
ई. १६वीं से २०वीं शताब्दी की श्राविकाओं का जैनधर्म के विकास में योगदान चित्रित है।
इसमें १६वीं से २१वीं शताब्दी की श्राविकाओं के द्वारा राजनीति, शिक्षा, कला, संस्कृति आदि के विविध क्षेत्रों में किये गये अवदानों का विवरण है।
इस शोध प्रबन्ध में जैन आगम साहित्य, आगमेत्तर साहित्य, अभिलेख आदि विविध स्रोतों को आधार बनाया गया है। विवेचन ऐतिहासिक क्रम से होने से यह प्रबन्ध एक ऐतिहासिक अभिलेख जैसा हो गया है। इसके शोध-निदेशक डॉ. सागरमल जैन एक मंजे हुए जैन विद्या के मनिषी हैं। शोध प्रबन्ध लेखिका ने बड़ा परिश्रम करके महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संग्रह किया है। शोध प्रबन्ध बहुत उच्च कोटि का है। तार्किक और शोधपरक विश्लेषण है। प्रथमतया इतना महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया है। अतः मैं सहर्ष साध्वी प्रतिभाश्री जी "प्राची" को जैन विद्या में पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त करने की संस्तुति करता हूँ ।
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डॉ. सुदर्शन जैन
बनारस
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