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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
भारतीय संस्कृति अध्यात्म संस्कृति
भारतीय संस्कृति चिरकाल से अध्यात्म प्रधान संस्कृति रही है। इसे अनेक प्रकार के विचारों, परम्पराओं, सम्प्रदायों का एक समन्वित रूप माना जाता है। समता या समत्व इसके प्रधान तत्व माने गए हैं और यही तत्व भारत की अनेकता की संस्कृति को एकता के सूत्र में पिरोकर रखे हुए है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक मानव जगत् में वैचारिक संघर्ष का ऊहापोह चलता रहा है परन्तु समत्व का यह तत्व इस वैचारिक संघर्ष के मंथन से नवनीत के रूप में नए विचारामृत का सृजन करता रहा है।
जैन धर्म विशाल विश्व रूपी नन्दन वन का एक सुंदर सुरभित प्रसून है जो अपनी दिव्य शक्ति और सिद्धान्त रूपी सौरभ से समस्त संसार के वायुमंडल को सुगन्धित कर रहा है। जैन धर्म के सिद्धान्त विश्व शांति के प्रमुख स्त्रोत हैं। इस जगती के आंगन में सुख और शांति रूपी सुधा का संचार एवं विस्तार करने का सर्वोपरि श्रेय यदि किसी को है तो वह जैन धर्म को ही है। जैन धर्म ही अहिंसामय संस्कृति का आद्य प्रणेता है। इसका लक्ष्य बिन्दु इस दृश्यमान स्थूल संसार तक ही सीमित नहीं वरन् विराट अन्तर्जगत की सर्वोपरि स्थिति सिद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। ऐसा मानना है कि आत्मा में अनन्त शक्ति है और प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। उसे किसी दूसरे पर अवलम्बित रहने की आवश्यकता नहीं है। जैन धर्म का यह स्वावलम्बनमय सिद्धान्त मानव को मानव की दासता से मुक्त करता है और अपने परम और चरम साध्य को प्राप्त करने के लिए अदम्य प्रेरणा प्रदान करता है । जैन धर्म का प्रभाव उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से पड़ा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म परम उदार व्यापक और सार्वजनिक है। यह सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय है ।
जीवन में ऐसे स्नेहिल, उल्लास पूर्ण प्रसंग आते हैं जो अपनी गरिमा से हमें अविस्मरणीय अर्थ दे जाते हैं। ऐसा ही शुभ प्रसंग आज के दिन आया है पू. महाराज साहब के शोध-प्रबन्ध के बारे में लिखने बैठी हूँ। अनन्त मे विराजित अरिहन्त भगवन्तों की असीम अनुकम्पा से पू.म.सा. साध्वी प्रतिभाश्री जी प्राची' द्वारा लिखित यह शोध प्रबंध रूपी ज्ञान-पुंज आप सुविज्ञ पाठकों को समर्पित करते हुए अतीव हर्ष एवं गौरव का अनुभव कर रहीं हूँ ।
इस शोध प्रबंध की भाव-व्यंजना, शाब्दिक शिल्पज्ञता, भाषा की प्राञ्जलता, लेखनी की प्रगल्भता आदि अत्यन्त सराहनीय हैं। जैसे-जैसे आप इसकी पठन सामग्री में गोता लगायेंगे, ज्ञान की अजस्रधारा से सिक्त होते चले जायेंगे। पू. साध्वीजी ने अपने विहार में शस्य श्यामला धरती को, उसके अनेक पहलुओं को, स्थान-स्थान के जन जीवन को, वहाँ की स्थानीय संस्कृति को बोली भाषा को बहुत निकट से देखा है और उस मिट्टी की सोंधी महक से आपका व्यक्तित्व अछूता नहीं रहा है। इस विशाल यात्रा ने उनकी लेखनी को अनुभूति और अभिव्यक्ति के सामर्थ्य से समृद्ध किया है। इसमें हृदय की विशुद्धि है और वाणी का सहज प्रकटीकरण है।
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