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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
उस युग में प्रसिद्ध जैन केंद्र था और ई. १४२६ के एक शिलालेख के अनुसार वह सद्धर्म के पालक पुण्य कार्यों को सहर्ष करनेवाला और धर्मकथा श्रवण के रसिक भव्य समुदाय से भरा हुआ था। ५.३४ कुन्दब्बे : ई. १०२३.
वह महाराज विमलादित्य की पटरानी थी। वह परम धार्मिक और जिनभक्त थी। उसके पिता राजराजा चोल तथा भाई राजेंद्र चोल थे। संभवतया इस रानी के प्रभाव से ही राजा भी जैनधर्म का अनयायी हुआ था। राजेंद्र चोल के राज्य के १२वें वर्ष, सन् १०२३ ई. में संभवतया विमलादित्य की मत्यु हो चुकी थी और विध्वा महारानी कुन्दब्बे अपने भाई के आश्रय में धर्मध्यानपूर्वक जीवन व्यतीत करती थी। रानी ने अपने भाई के परामर्श से ई. सन् १०२३ में पवित्र पर्वत तिरूमलै पर कुन्दब्बे जिनालय नामक भव्य जिनालय बनवाया, तथा उसकी व्यवस्था के लिए ग्राम आदि को दान में दिया था।२४ ५.३५ ललिता : १२ वीं शताब्दी.
सोमेश्वर चौहान नरेश के राज्यकाल में श्रेष्ठी लोलार्क हुए थे। उनकी तीन पत्नियाँ थी, ललिता विशेष प्रिय थी। एक बार सुखपूर्वक शयन करते हुए ललिता ने स्वप्न देखा कि नागराज धरणेंद्र ने उसे कहा कि, श्री पार्श्वनाथ भगवान् का प्रासाद बनवाओ। सेठानी ललिता ने सेठ को स्वप्न की बात सुनाकर प्रेरणा दी कि खेती तीरवर्ती पार्श्वनाथ-तीर्थ का उद्धार करे। लोलार्क ने उक्त स्थान पर खेतीकुण्ड के तट पर भव्य पार्श्वनाथ जिनालय बनवाया, चहूँ और छ: अन्य जिनमंदिर बनवाये। नि "उन्नतिशिखर पुराण" का संपूर्ण ग्रंथ उत्कीर्ण करवाया। चौहान नरेशों की वंशावली, अपने एवं अपने पूर्वज पुरूषों के धार्मिक कार्य संपन्नता का वर्णन लिखवाया। विभिन्न ग्राम एवं भूमि दान में दी।५ प्रशस्ति की रचना, कवियों के कण्ठभूषण, माथुरसंघी गुणभद्र महामुनि ने की, जो श्रेष्ठी लोलार्क के गुरू थे। ५.३६ रूपसंदरी : ई. सन की १३वीं शती.
पंचासर के राजा जयशेखर की रानी थी। कल्याणी-पति भुवड़ के साथ युद्ध करते हुए रणांगन में उसके पिता का स्वर्गवास हुआ । उस समय वह गर्भवती थी। गर्भस्थ शिशु को राज्य के लोभ में आकर कोई हत्या न करदे, इस संभावित भय से शत्रुओं से बचकर राजमहलों से एकाकी निकलकर विकट बन में जाकर वह वन्य जीवन व्यतीत करने लगी। उसने वि. सं ७५२ में वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन एक बालक को जन्म दिया, उस बालक ने दुर्भाग्य से राजप्रसाद के स्थान पर वन मे जन्म लिया, इसलिए उसका नाम "वनराज" रखा गया था। रूपसुंदरी के भाई सुरपाल थे। यह वनराज ही आगे चलकर चापोत्कट वंश का महान् कुलदीपक वनराज चावड़ा के नाम से बहद् गुर्जर नरेश बना । अपने जीवन के ऊषाकाल से ही राजमहलों में रहनेवाली एक क्षत्रिय बाला हिंस्त्र पशुओं से संकुल निर्जन वन में रहीं यह उसके साहस और शौर्य की अद्भुत महिमा है। चैत्यवासी परंपरा नागेंद्रगच्छ के आचार्य शीलगुणसूरि ने विहार के समय वन में इस वीर बाला को देखा, उन्होंने उसके अद्भुत साहस की सराहना की, उसे पूर्ण संरक्षण दिया, तथा उसके वीर पुत्र वनराज को युद्ध कौशल्य एवं जैन धर्म सिद्धांतों का परिज्ञान करवाया। सुयोग्य होने पर उसका राज्याभिषेक करवाया। वनराज चावड़ा ने जीवनपर्यंत चैत्यवासी परंपरा के आचार्य शीलगुणसूरि एवं आचार्य देवचंद्रसूरि को अपना गुरु माना। पाँच शताब्दियों तक चैत्यवासी परंपरा उतरोत्तर निर्बाध गति से फलती फूलती रही। अंत में १०६ वर्ष की उम्र में वि. सं ८६२ में अनशनपूर्वक उसने मत्यु का वरण किया। वीर माता के वीर पुत्र की यशगाथा सम्मान से समाज गाता रहेगा। २६ ५.३७ नाल्हणदेवी : ई. सन् की १४वीं-१५ वीं शती.
राजस्थान के नाणी ग्राम में रहने वाले पोरवाल (प्रागवार) ज्ञातीय श्रीमान् वीरसिंह जी की पत्नी का नाम नाल्हणदेवी था। उनका एक बालक था जिसका नाम वस्तिग रखा गया । वस्तिग धार्मिक प्रवत्ति का था। मात्र सात वर्ष की अवस्था में बालक वस्तिग को माता-पिता ने आचार्य महेंद्रप्रभसूरि के चरणों में दीक्षित करने की अनुज्ञा दे दी। यही बालक शासन के सुयोग्य आचार्य मेरूतुंग के रूप में विख्यात हुए। धन्य हैं माता-पिता का उत्कृष्ट धर्मभाव ।
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