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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
तथा जैन एक ही धर्म है, इन्हें समान मान्यता देनी चाहिए। दक्षिण भारत में प्रचार-प्रसार में राजा तथा उनके मंत्रीगणों ने तो सर्वप्रकार का सहयोग दिया किंतु मुनि तथा आचार्यों की प्रेरणा से महिलाओं ने अद्भुत कारीगरीवाले एवं सुंदर मंदिर बनवाकर जो योगदान स्थापत्य कला में दिया है, उसकी दूसरी मिसाल भारतीय इतिहास तथा अन्य देशों के इतिहास में मिलना असंभव है । ऐशो आराम तथा भोग के संपूर्ण साधनों को त्याग कर धर्म तथा तपोनिष्ठ होकर जैन धर्म के सिद्धांतों को अपनाकर जीवन में चरितार्थ करने का जो कार्य दक्षिण भारत की महिलाओं ने किया उससे जैनधर्म ही नहीं, भारत के सर्व धर्म-संप्रदाय गौरवान्वित हुए हैं।
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५.३० मीनलदेवी: ई. सन् ११००.
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मीनलदेवी राजा कर्ण की रानी थी तथा गुजरात के चालुक्य नरेश जयसिंहंसिद्धराजकी माता थी। वह जैन धर्म पर अनन्य आस्था रखती थी। राजा के प्रधानमंत्री मुंजाल मेहता के मार्गदर्शन में रानी मीनलदेवी ने कई धार्मिक कार्य संपन्न किये थे । ई. सन् ११०० के आसपास वरूम गाँव में उसने "मानसून" झील बनवाई थी। जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में राजमाता मीनलदेवी का बहुत योगदान था। माता की धार्मिकता का प्रभाव पुत्र जयसिंह पर भी था । राजा सिद्धराज ने जैन तीर्थ शत्रुंजय की यात्रा करके आदिनाथ जिनालय को बारह ग्राम समर्पित किये थे। सिद्धपुर में रायविहार नामक सुंदर आदिनाथ जिनालय तथा गिरनार तीर्थ पर भगवान् नेमिनाथ का मंदिर बनवाने का श्रेय राजा जयसिंह को है। ई. सन् १०६४ - ११४३ में जैन धर्म को गुजरात का राज्याश्रय प्राप्त था । २० रानी मीनलदेवी ने अपने महारानी पद पर रहते हुए उसका पूरा लाभ उठाया तथा मंदिर आदि के लिए दान देकर धर्म प्रभावना के विकास में चार चाँद लगाएं।
५. ३१ काश्मीरी : ईस्वी सन् ११६०.
काश्मीरी देवी राजा त्रिभुवनपाल की पत्नी थी तथा गुजरात (पाटण) के सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल की माता थी। माता बाल्यकाल से ही पुत्र को कठिनाईयों का सामना करने की शिक्षा दी थी। माता पुत्र के अमंगल की आशंका से अपना जीवन अधिक्तर धर्मध्यान में व्यतीत करती थी । काश्मीरी देवी के पेमलदेवी और देवलदेवी नामक दो विदुषी कन्याएँ थी, परंतु उनका धार्मिक विवरण प्राप्त नहीं होता है। कुमारपाल राजा ने अपने धर्म गुरु हेमचंद्राचार्य को उच्च सम्मान दिया था। मुनि जिनविजयजी के शब्दों में- "महर्षि हेमचंद्र के राज्यकाल में जैन धर्म की स्थिति केवल सुदढ़ ही नहीं हुई थी किंतु कुछ समय के लिए यह राज्यधर्म भी बन गया था । श्रावक श्राविकाओं ने भी इस धर्म को अपनाकर अपना आत्मकल्याण किया । २१
इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उस समय समाज में तथा नागरिकों में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा थी । श्राविकाएँ मंदिरों एवं उपाश्रयों में साध्वियों से व्याख्यान सुनने जाया करती थी । कुमारपाल ने अपने आध्यात्मिक गुरू हेमचंद्र से वि. सं. १२१६ ई. सन् ११६० में संघ के समक्ष जैन धर्म स्वीकार किया। माता काश्मीरी देवी के धर्म संस्कारों का ही प्रभाव था, जो पुण्यवान् जैन धर्म प्रभावक पुत्र कुमारपाल जैसे शासक को उसने पैदा किया।
५.३२ भोपालाः ई. सन् ११६०.
भोपाला राजा कुमारपाल की तीन रानियों में से एक थी। राज्य प्राप्ति से पूर्व जब राजा कुमारपाल जयसिंह के डर से इधर-उधर घूमते थे तब रानी उनके साथ थी । रानी भोपाला सुख दुख में सदैव पति के साथ रही व उनके हर कार्य में पूर्ण सहयोगिनी रही। रानी पर आचार्य हेमचंद्र जी का प्रभाव था। रानी का एक पुत्र था जिसका नाम लीलू था । जनश्रुति है कि आचार्य हेमचंद्र के ११७२ में हुए स्वर्गवास के पश्चात् रानी को अपने पति की मृत्यु का भी दारूण दुःख सहना पड़ा था । २२ भोपाला अपने पद पर रहती हुई बखूबी से पति की धर्म सहायिका बनी यह उसका अनमोल योगदान है।
५.३३ श्रुतोद्धारक राजकुमारी देवमतिः ई. १४२६.
तौलव देश की राजकुमारी का नाम देवमति था । राजकुमारी देवमति ने श्रतुपंचमीव्रत किया तथा उसका उद्यापन सुप्रसिद्ध महाविशालकाय धवल, जयधवल, महाधवल की ताड़पत्रीय प्रतियाँ लिखाकर मूड़बिद्रि ( वेणुपुर ) की गुरू- बसदि, अपरनाम सिद्धांत बसदि में स्थापित की थी । इस विपुल द्रव्य एवं समय साध्य महान् कार्य द्वारा उसने सिद्धांत शास्त्रों की रक्षा की थी । यह नगर
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