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________________ 244 ५. २४ गोपा : ई. सन् की आठवीं शती. गोपा नाग की धर्मपत्नी थी । गोपा के सात पुत्र थे । देहड़, सीह, थोर, ये तीन उनसे ज्येष्ठ थे। देउल, णण्ण, तिउज्जग ये तीन उनसे कनिष्ठ थे। जिनदास महत्तर बीच के थे। गोपा सत्संस्कारमयी, धार्मिक विचारों वाली थी, अतः उसने जिनदास महत्तर जैसे मेधासंपन्न जिनशासन प्रभावक सुपुत्र को जन्म देने का गौरव प्राप्त किया । १४ ५. २५ भट्टी : ई. सन् की सातवीं-आठवीं शती. आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ गुजरात प्रदेशान्तर्गत डुम्बाउधि ग्राम में बप्प नामक क्षत्रिय वंशज रहता था । बप्प की पत्नी का नाम भट्टी था। उसने एक मात्र कुलदीपक को जन्म दिया। पुत्र का नाम सूरपाल रखा था। जब बालक छ: वर्ष का था तभी आचार्य सिद्धसेन के साथ संपर्क स्थापित हुआ 1 वैराग्य रंग से अनुरंजित हुआ। आचार्य जी ने सूरपाल की जन्म भूमि में प्रवेश किया तथा उनके माता-पिता से बालक को दीक्षित करने की अनुज्ञा मांगी। माता-पिता ने बालक की दढ़ इच्छा देखी, अपने मोह का त्याग कर उन्होंने निवदेन किया"आर्य ! आप इसे ग्रहण करें और इसका नाम बप्पभट्टि रखें, इससे हमारा नाम भी विश्रुत होगा। माता ने अपने जीवन का एक मात्र आधार पुत्र को समर्पित कर जिनशासन की महती प्रभावना की थी । ५.२६ धनश्री : ई. सन् की ग्यारहवीं शती. गुजरात प्रदेशान्तर्गत उन्नतायु (उणा ) ग्राम में वैश्य वंशीय श्रीमाल गोत्रीय धनदेव निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम धनश्री था। धनश्री साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा थी । दोनों पति पत्नी जिनेश्वरदेव के चरणोपासक थे । धनश्री भी जैन धर्म के प्रति आस्थावान् थी। उनका एक पुत्र था जो प्रज्ञाबल के साथ शरीर संपदा से युक्त था । आचार्य विजयसिंहसूरि के प्रति श्रद्धावनत होकर माता-पिता ने अपने पुत्र को गुरु चरणों में समर्पित किया। आगे चलकर आचार्य शांतिसूरि के रूप में उनके पुत्र प्रख्यात हुए थे । १६ माता धनश्री की जिनमार्ग के प्रति प्रबल आस्था तथा संसार के प्रति मोह विजय की भावना स्पष्ट झलकती है। ५. २७ धनदेवी: ई. सन् की ११ वीं १२ वीं सदी. वैश्य परिवार के महीधर श्रेष्ठी धारानगरी में रहते थे। उनकी पत्नी का नाम धनदेवी था। धारा नगरी में उस समय राजा भोज का शासन था। धनदेवी के पुत्र का नाम अभयकुमार था । आचार्य जिनेश्वसूरि के चरणों में पुत्र अभयकुमार ने दीक्षा अंगीकार की। आगे चलकर, नवांगी टीकाकार के रूप में आचार्य अभयदेव प्रसिद्ध हुए। यह माता-पिता के संस्कारों की ही सुखद देन थी । ५.२८ मेलादेः ई. सन् की १५ वीं शती. रामदेव राणा खेता के समय में मेवाड़ का मुख्यमंत्री था। इसकी दो पत्नियाँ थी । एक थी मेलादे और दूसरी थी माल्हणदे । करेड़ा के जैन मंदिर के विज्ञप्ति लेख में इसका सुंदर वर्णन आया है। मेला का पुत्र सहनपाल नवलखा भी राणा कुम्भा और मोकल के समय में मुख्यमंत्री था। मेलादे ने ज्ञानहंसगणि से "संदेह दोहावली" नामक पुस्तक लिखवाई थी। प्रशस्ति में इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है। रामदेव नवलखा ने अनेक साधुओं को ज्ञान दिया था और तीर्थो के जीर्णोद्धार तथा मंदिर निर्माण के लिए सहस्त्रों रुपए व्यय किये थे । ५.२६ भीमादेवी: ई. सन् की १५ वीं शती. भीमादेवी विजयनगर के राजा देवराज प्रथम की धर्मपरायणा पत्नी थी। जैन धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था थी । भीमादेवी स्वयं का बहुत-सा द्रव्य देकर ईस्वी सन् १४१० के लगभग श्रवणबेलगोला के मंगायी बस्ति के लिए शांतिनाथ भगवान् की मूर्ति को स्थापित करवाया, जिसका निर्माण १३२५ ईस्वी के लगभग मंगायी नाम की एक राजनर्तकी ने करवाया था। महारानी भीमादेवी की अत्यंत धर्मनिष्ठा के कारण ही राजा देवराज का भी जैनधर्म के प्रति अच्छासद्भाव था । विजयनगर के राजा कांगु ने राज्य को अपने नियंत्रण में लेकर जैनधर्म का प्रचार किया। विजयनगर के राजा बुक्का ने निम्न प्रकार की घोषणा अपने अपने राज्य में करवाई थी । "जब तक चाँद व सूर्य रहेगा, तब तक जैन तथा वैष्णव दोनो संप्रदाय का समान आदर राज्य में रहेगा । वैष्णव I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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