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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
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५.१६ अंगार देवीः विक्रम संवत १२५५,
मंडलपति केल्हण की नीतिशालिनी सुपुत्री अंगारदेवी थी। आबू के समीप एक सौ अठारह ग्रामों से युक्त चंद्रावती के प्रतापी परमार राजा थे धारावर्ष। उनकी पटरानी थी अंगारदेवी। झाड़ोली (सिरोही जिला) गांव पर नागड सचिव अधिकारी था। वि. सं. १२५५ में महारानी श्रंगारदेवी ने महावीर स्वामी की पूजा के लिए अद्भुत वाटिका की भूमि दान में अर्पण की थी। पूज्य तिलकप्रभसूरि ने अपने शिलालेख की प्रशस्ति में इसका सूचन किया है।६ ५.२० नीतल्लादेवी; नीतादेवी ई. सन् की १३वीं शती.
क्षत्रिय शिरोमणि सूरा के बंधु शांतिमदेव के पुत्र विजयपाल की प्रिय रानी नीता देवी थी। नीता देवी नीतिज्ञ राजगुणों से विभूषित तथा धर्मकार्यों में उद्यमी थी। उनके पुत्र का नाम राणा पद्मसिंह था। पुत्री का नामरूपल देवी था, जो शूरवीर दुर्जनशल्य को ब्याही गई थी। नीतल देवी ने मुनि विद्याकुमार के सदुपदेश से पाटडी में पार्श्वनाथ भगवान् का मंदिर और पौषधशाला (उपाश्रय) बनवाई थी तथा योगशास्त्र निवृत्ति की पुस्तक भी लिखवाई जो पाटण में विद्यमान है। १० ५.२१ उदयश्री श्राविकाः ई. सन १३६७
राजा जयचन्द्र का उत्तराधिकारी राजा रामचंद्र के प्रधान मंत्री सोमदेव के पुत्र वासाधर की भार्या थी उदयश्री। वह पतिव्रता, सुशीला और चतुर्विध संघ के लिए कल्पद्रुम थी। चन्द्रवाड़ में उन्होंने एक विशाल एवं कलापूर्ण जिन मंदिर बनवाया तथा अनेक पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। ईस्वी सन् १३६७ में गुजरात निवासी कवि धनपाल से उसने अपभ्रंश भाषा में बाहुबली चरित्र नामक काव्य की रचना कराई थी। ५.२२ जिनमतीः ई. सन् की आठवीं शती.
कांची निवासी ब्राह्मण जिनदास की पत्नी का नाम जिनमती था। जिनमती धर्मपरायणा एवं विदुषी थी। उसने सत्संस्कार संपन्न मेधावी दो पुत्रों को जन्म दिया। उनके नाम थे अकलंक एवं निष्कलंक। किसी भी पद्य अथवा सूत्र पाठ को अकलडन्क एक बार सुनकर याद रख लेने में समर्थ थे। एक बार जिनमती अपने पति एवं पुत्रों सहित जैन गुरू रविगुप्त के पास अष्टान्हिक पर्व के अवसर पर गए। उनके उपदेश के प्रभाव से दोनों पति-पत्नी एवं बंधुयुगल ने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। आगे चलकर दोनों बंधयुगल ने दीक्षा लेकर जैन धर्म की भारी प्रभावना की थी। माता जिनमती धार्मिक विचारों वाली तथा गुरू भक्ति से ओत-प्रोत थी। फलस्वरूप पुत्र सन्मार्ग के राही बने थे।२ कथाकोष एवं आराधना कोष में जिनमती की जगह पद्मावती नाम प्राप्त होता है। ५.२३ मदनसुंदरीः ई. सन् की आठवीं शती.
कलिंग देश के रत्नसंचयपुर में नरेश हिमशीतल राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम मदनसुंदरी था। मदनसुंदरी जैन धर्म की उपासिका थी। एक दिन अष्टान्हिक पर्व के अवसर पर वह धूमधाम से रथयात्रा निकालना चाहती थी, किंतु नगरी में बौद्ध गुरू का भारी प्रभाव था। उन्होंने नरेश हिमशीतल को एक शर्त के साथ अपने विचारों से सहमत कर लिया कि, किसी जैन गुरु के द्वारा बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने पर ही यह रथयात्रा निकल सकती है। रानी राजा के इन विचारों से चिंतित हुई। संयोग से यह बात भट्ट अकलंक के पास पहुंची। वे स्वयं शस्त्रार्थ करने के लिए नरेश हिमशीतल की सभा में उपस्थित हुए। छः महीने तक उन्होंने बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया। जैन शासन की उपासिका चक्रेश्वरी देवी ने एक दिन वस्तु स्थिति स्पष्ट की। पर्दे के पीछे बौद्ध गुरू नहीं अपितु घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ कर रही है। उसे पराजित करने की युक्ति देवी ने बतलाई । अगले दिन तारादेवी की पराजय हुई। अकलंक ने तत्काल पर्दे को खींचकर घड़े को ठोकर से तोड़ डाला। घट का स्फोट होते ही सारा रहस्य उद्घाटित हो गया। बौद्धों की भारी पराजय और अकलंक की विजय हुई। जैन रथयात्रा धूमधाम से संपन्न हुई। जैन शासन की महती प्रभावना हुई। इस प्रकार रानी मदनसुंदरी की धर्म श्रद्धा का सुपरिणाम प्रकट हुआ। उसकी चिर मनोकामना पूर्ण हुई।
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