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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
५.१६ पाहिनीः ई. सन् १०८८ वि. सं. ११४५. ____ गुजरात के धंधुका नामक नगरी के धार्मिक गहस्थ चाचिग की धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था। एक बार पाहिनी ने पुत्र जन्म से पूर्व रात्रि में एक स्वप्न देखा कि उसने एक चिंतामणि रत्न अपने गुरूदेव मुनि को भेंट किया है। स्वप्न का जिक्र करने पर गुरूदेव ने पुत्र रत्न प्राप्ति का संकेत किया। यथा समय पाहिनी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया जिसका नाम चांग रखा गया। चांग शनैः शनैः बड़ा हुआ । एक बार बालक चांग खेलते हुए उपाश्रय में देवचंद्र मुनि के पाट पर जा बैठा। गुरू देवचंद्र ने विशिष्ट लक्षणों वाले बालक को देखकर उसे शिष्य रूप में प्राप्त करने की इच्छा माता पाहिनी के सामने रखी एवं पाहिनी को स्वप्न की बात का स्मरण कराया (चांगदेव के दीक्षित होने के कई प्रकार की कथाएं प्रचलित है) पाहिनी इस सुझाव से अवाक रह गई। परन्तु गुरू पर श्रद्धा तथा उनके अत्यधिक आग्रह से प्रभावित होकर उसने अपनी इच्छा न होते हुए भी गुरू को अपना पुत्र भेंट कर दिया। गुरू देवचंद्र बालक चांग को लेकर स्तभ तीर्थ (खंभात) की ओर विहार कर गये और खंभात के पार्श्वनाथ मंदिर में बालक चांग को दीक्षित किया। उस समय तत्कालीन गुजरात के सुप्रसिद्ध मंत्री उदयन भी दीक्षा महोत्सव में सम्मिलित हुए। दीक्षा के पश्चात् चांगदेव का नाम सोमचंद्र रखा गया। मुनि सोमचंद्र विद्याभ्यास में आशातीत प्रगति करने लगे। उन्होंने व्याकरण, अलंकार, कोष, न्यायदर्शन, ज्योतिष, त्रिषष्टिशलाका पुरूष आदि सभी विषयों पर ग्रंथ रचना कर जैन धर्म के साहित्य का भंडार भर दिया। २१ वर्ष की आयु में वि. सं. ११६६ में आचार्य पद से विभूषित हुए और आचार्य हेमचंद्र नाम दिया गया। तत्कालीन गुजरात में जैन संघ के विशेष वर्चस्व की स्थापना हेमचंद्राचार्य ने की। भारतीय धर्मपरायणा महिला के मन में पुत्रैषणा के साथ ही पुत्र के धार्मिक इष्ट मंगल और कीर्तिमान होने की भावना से प्रेरित होकर, संकुचित पुत्र स्नेह की भावना त्यागकर समष्टिवादी दष्टि अपनाई । यह बहुत बड़ा त्याग धार्मिक माता ने किया जो कि मनोवैज्ञानिक धरातल पर भी अपना विशिष्ट महत्व रखता है। जैन धर्म में सूर्य के समान सदा चमकने वाले इस महान विद्वान के प्रभाव से जैन धर्म व संघ का सभी दिशाओं में विकास हुआ। आचार्य हेमचंद्र जैसे प्रकाण्ड विद्वान् को जन्म देने वाली माता धन्य है। पाहिनी जैसी माता के त्याग ने ही पुत्र को इतिहास में सदा के लिए अमर कर दिया। तथा नागरिकों में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा थी। श्राविकाएं मंदिरों एवं उपाश्रयों में साध्वियों से व्याख्यान सुनने जाया करती थी। कुमारपाल ने अपने आध्यात्मिक गुरू हेमचंद्र से वि. सं. १२१६ ई. सन् ११६० में संघ के समक्ष जैन धर्म स्वीकार किया था। ५.१७ अनुपमा देवीः ईस्वी सन् १२३२.
महामात्य तेजपाल की दो पत्नियां थी। अनुपमा देवी और सुहडा देवी। अनुपमा देवी की कुक्षी से महाप्रतापी प्रतिभाशाली उदार हृदय लूण सिंह नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो राज कार्य में भी निपुण था। वह पिता के साथ और अकेला भी युद्ध, संधि, विग्रहादि कार्यों में भाग लेता था। गुजरात में धोलका में महामण्डलेश्वर सोलंकी अर्णोराज का प्रपौत्र वीरधवल युवराज था। उनके सामंत वस्तुपाल और तेजपाल थे। तेजपाल ने अपनी धर्मपत्नी अनुपमादेवी और पुत्र लावण्यसिंह के कल्याण के लिए आबू पर्वत स्थल देलवाडा ग्राम में विमल वसहि मंदिर के पास ही उत्तम कारीगरी सहित संगमरमर का गूढ मंडप, नवचौकियां, रंग मण्डप, बालानक, खत्तक, जगति एवं हस्तिशाला आदि का निर्माण कराया। ईस्वी सन् १२३२ में निर्मित आबू के आदिनाथ मंदिर के पास देलवाडा नेमिनाथ मंदिर जो पति तेजपाल ने निर्माण कराया. उस मंदिर के निर्माण कार्य की देख-भाल अनुपमा देवी ने स्वयं की थी। निर्माण कार्य में विलम्ब देख वह स्वयं निर्माण स्थान पर गई और कलापूर्ण कोतरणी के कार्य करने वाले कारीगरों को सभी सुविधायें प्रदान की थी। वास्तुकला में अनुपमादेवी निपुण थी। उसने कारीगरों को महत्वपूर्ण सुझाव दिये जिसके प्रभाव से शिल्पकला की दष्टि से यह मंदिर आबू के आदिनाथ मंदिर के समकक्ष बन गया। इस दष्टांत से यह प्रतीत होता है कि उस समय गुजरात में स्थापत्य कला का ज्ञान विशेष था। धनिक वर्ग तथा राज्य प्रमुख अपने पुत्र और पुत्रियों को भी इस कला में पारंगत करते थे। स्थापत्य कला की सूक्ष्मता किसी मनोगत भाव का स्थूल प्रतीक है। कला की सामग्री के बाह्य रूप से हमें उस समय की ऐतिहासिक
और सांस्कतिक पष्ठभूमि का अध्ययन करने में सुविधा प्राप्त होती है। ऐसे कलात्मक भव्य मंदिर की देख-रेख तथा उसके निर्माण में सक्रिय मार्गदर्शन देने की निपुणता और क्षमता इस अनुपमादेवी में अवश्य रही थी। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि इन्होंने शबंजय मंदिर निर्माण में भी अपने सुझाव दिये थे, जो मान्य किये गये थे। अध्यात्मरसिक पंडित देवचंदजी को अठारहवीं शताब्दी के श्राविकाओं के लिखित दो पन्ने मिलें हैं, जिसमें श्राविका अनुपमा के वैदुष्य और अध्यात्म से, उनके अनुपम गुणों का ज्ञान होता है।
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