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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
५.१३ सुंदरी: ई. सन् ६७२,
कवि धनपाल की बहन सुंदरी प्राकत एवं संस्कृत भाषा की ज्ञाता विद्वान् महिला थी । उस समय संस्कत के अमरकोष जैसा प्राकत में कोई ग्रंथ नहीं था । धनपाल ने वि. सं. १०२६ (ई. सन् ६७२) में धारा नगरी में "पाइयलच्छी नाम माला" नामक प्राकत कोष की रचना की। बहन सुंदरी ने इसी ग्रंथ से प्राकृत भाषा का अभ्यास किया। अतः प्राकत भाषा के इस अमर ग्रंथ की रचना की प्रेरणा स्त्रोत सुंदरी को माना जा सकता है। अतः यह निर्विवाद है कि धनपाल की पुत्री एवं बहन दोनों विदुषी तथा संस्कत प्राकत भाषा की ज्ञाता थी और साहित्य रचना में रूचि रखती थी । ३
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इस प्रकार दसवीं शताब्दी में भी साहित्य, भाषा तथा धर्म के क्षेत्र में श्राविकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। वे जैन धर्म पर दढ़ आस्था रखती थी, और प्राकत भाषा का अध्ययन और उन्नयन करती थी ।
५. १४ श्रीमती : ई. १०१० - १०६२,
अणहिलपुरपाटन के राज्य सिंहासनाधिपति गुर्जर देशके चौलुक्य महाराजा भीमदेव का मंत्री था विमलशाह । विमल अत्यंत कार्य दक्ष, शूरवीर और उत्साही था । श्रीमती मंत्री विमलशाह की पत्नी थी । विमल ने अपने उत्तरार्ध जीवन में चंद्रावती और अचलगढ़ को अपना निवास स्थान बनाया और चंद्रावती में धर्मघोष सूरि का चातुर्मास कराया और इनके उपदेश से आबू पर्वत पर विमल वसहि नामक मंदिर बनवाया । इस मंदिर की भूमि के खरीदने में अपार धन का व्यय हुआ । विमल - वसही अपूर्व शिल्प कला का उदाहरण हैं। आचार्य विजय धर्म सूरि ने श्राविका श्रीमती की महिमा बताते हुए लिखा है।
श्राविका श्रीमती तथा विमलशाह सुख समद्धि के सब साधन होते हुए भी संतान के अभाव में सतत चिंतित रहते थे । उन्हें अपना जीवन निरर्थक लगता था । पति द्वारा उदासी का कारण पूछने पर पत्नी ने अपनी मनोकामना व्यक्त की । अनुश्रुति के अनुसार विमलशाह ने अपनी इष्ट देवी अंबिका की तीन दिन तक अन्न जल त्यागकर आराधना की। मंत्रीश्वर की भक्ति तथा उनके पुण्य प्रभाव से तीसरे दिन अर्ध रात्रि को देवी ने दर्शन दिये तथा वरदान मांगने को कहा। मंत्री ने दो वर - एक पुत्र दूसरा आबू पर्वत पर मंदिर का निर्माण मांगे। इस पर देवी ने कहा तुम्हारा पुण्य संचय एक वरदान जितना ही हैं। "मंत्रीश्वर ने यह बात अपनी अर्द्धांगिनी से जाकर कही। इस पर श्रीमती ने पुत्र का मोह त्यागकर कहा - प्राणेश्वर! संसार तो असार है, पुत्र से भी कोई महिला चिरकाल तक अमर नहीं रहती। संतान कुसंतान भी निकल सकती है और उसके दुष्कत्यों से सात पीढ़ी बदनाम भी हो सकती है। माता, पुत्र, पति आदि तो सांसारिक जीवन के नाते हैं। पर यदि तीर्थोद्धार हुआ तो उसका पुण्य जन्म जन्मान्तर तक रहेगा। अतः पुत्र प्राप्ति के स्थान पर मंदिर के तीर्थोद्धार का वर देवी से प्राप्त करें।
धर्मनिष्ठ श्राविका श्रीमती ने संतान का मोह छोड़कर जिस महान त्याग का उदाहरण दिया है वह वास्तव में आदर्श व अनुकरणीय है । पुत्र प्राप्ति तथा मातत्व पद प्राप्त करने के लिए स्त्रियां कई प्रकार के तप, जप, करती है। तथा सिद्ध पुरूषों से आशीर्वाद प्राप्त करती है। परन्तु आदर्श नारी श्रीमती ने अपने व्यक्तिगत क्षणिक सुख को समष्टि के सुख आनंद के लिए न्यौछावर कर दिया है। और इस त्याग की नींव पर ईस्वी सन् १०३ में एक ऐसे जिनालय का निर्माण हुआ। जिसके समान स्थापत्य कला का दूसरा उदाहरण संसार में मिलना दुर्लभ है। श्रीमती के इस त्याग की महिमा जैन इतिहास में सुवर्ण अक्षरों में लिखी जाने योग्य है। विमलशाह तथा उनकी पत्नी श्रीमती ने आबू पर्वत पर कलापूर्ण मंदिर का निर्माण कर अक्षय यश प्राप्त किया है।
५. १५ मीनल देवी: ई. सन् १०.
मीनल देवी राजा कर्ण की रानी थी तथा गुजरात के चालुक्य नरेश जय सिंह सिद्धराज की माता थी । वह जैन धर्म पर अनन्य आस्था रखती थी। राजा के प्रधानमंत्री मुंजाल मेहता के मार्गदर्शन में रानी मीनल देवी ने कई धार्मिक कार्य संपन्न किये। ई. सन् ११०० के आसपास वरूम गांव में मॉनसून झील" बनवाई थी। जैन धर्म के प्रचार प्रसार में राजमाता मीनलदेवी का बहुत योगदान था। माता की धार्मिकता का प्रभाव पुत्र जयसिंह पर भी बहुत था। राजा सिद्धराज ने जैन तीर्थ शत्रुंजय की यात्रा करके आदिनाथ जिनालय को बारह ग्राम समर्पित किये थे। सिद्धपुर में राय विहार नामक सुंदर आदिनाथ जिनालय तथा गिरनार तीर्थ पर भगवान् नेमिनाथ का मंदिर बनवाने का श्रेय राजा जयसिंह को है। ई. सन् १०६४ - ११४३ में जैन धर्म को गुजरात में राज्याश्रय प्राप्त था । *
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