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________________ 240 आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ बाचले की प्रार्थना पर इरंगोल द्वितीय ने १२३२ ई. में कुछ भूमियों का दान दिया था। मेलब्बे और बोम्मिसेट्टि का पुत्र मल्लिसेट्टि था। उसने ब्रह्म जिनालय बनवाकर पार्श्व देव की प्रतिष्ठा की थी। अन्य विशिष्ट जनों में भूपाल गोल्लाचार्य ने ११वीं शती ई. के आरंभ में भूपाल-चतुर्विंशति-स्तोत्र की रचना की थी, जिसकी गणना भक्तामर, कल्याणमंदिर आदि पंच-स्तोत्रों से की जाती है। मंत्रीश नेमदण्डेश के पुत्र पार्श्वदेव की पत्नी मुद्दरसि गंगवंश में उत्पन्न हुई थी। कम्बदहल्लि जो प्राचीन और प्रसिद्ध जैन केंद्र था, वहाँ पर इन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा हनसोगे के जैनाचार्यों को ११६७ ई. में समर्पित कर दिया था। इस वंश में राजा अच्युत-वीरेंद्र-शिक्यप की पत्नी चिक्कतायि सुशीला, भक्तियुक्ता थी, तत्वशीला,थी एवं विद्यानंदस्वामी की गहस्थ शिष्या थी। धर्मात्मा चिक्कतायि ने कनकाचल में भगवान् पार्श्वेश की पंचवर्षीय पूजा, मुनियों को नित्य आहार दान, और सदैव शास्त्रदान के निमित्त ११८१ ई. में किन्नरपुर का दान दिया था। राजभक्त सोम की पत्नी सोमाम्बिका रूप-लावण्य में रति के समान और सम्यग्दर्शन में रेवती रानी के समान थी। सोम नप की पुत्रियाँ थी वीराम्बिका और उदयाम्बिका, जो साक्षात् जिन शासन देवियों के समान धर्मरक्षक और धर्मात्मा थी। उदयाम्बिका का विवाह जूजकुमार से हुआ था। इस राजपुत्री और राजरानी ने भव्य जिनेंद्र भवन बनवाया था। श्रीवर्द्धनपुर निवासी धर्मात्मा सेठ राणुगी के पुत्र म्हालुगि की धर्मपत्नि का नाम स्वर्णा था। शिलालेखों में दिण्डिकराज, सामन्त नागनायक, पाण्ड्यनरेश वीरपल्लवराय, गरूड़केसरीराज, वत्सराज बालादित्य, हेग्गडे, दण्डनायक, बम्मदेव और नागदेव, सिंग्यपनायक, गन्ध हस्ति, बोयिग आदि अन्य अनेक जैन राजाओं, सामंत-सरदारों तथा गावुण्डों, श्रेष्ठियों धर्मात्मा-महिलाओं आदि के पूर्व मध्यकाल में नामोल्लेख मिलते हैं। अनेक धर्मात्माओं द्वारा श्रवणबेलगोल आदि में किये गये दान या अन्यधर्म कार्यों के संकेत भी मिलते हैं ।५५ जैनसंघ सदा से आर्य धरा पर एक सुदढ़ शक्तिशाली धर्मसंघ के रूप में प्रतिष्ठित रहा है । आदिकाल से इक्ष्वाकु वंश के राजाओं ने, तदनंतर हरिवंश-यदुवंश, पौरववंश, शिशुनाग वंश, गर्दभिल्लवंश, सातवाहन वंश, चेदि वंश एवं मौर्य वंश आदि अनेक यशस्वी राजवंशों के राजाओं ने समय-समय पर अपने-अपने शासन काल में विश्व बंधुत्व की भावनाओं से ओत-प्रोत विश्वकल्याण कारी जैन धर्म के प्रचार प्रसार में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये हैं । ५.११ मेलादेः वि. सं. १४८६ ई. सन् १४२६, रामदेव, राणा खेता के समय में मेवाड़ का मुख्यमंत्री था। इसकी दो पत्नियां थी एक थी मेलादे और दूसरी थी मालहणदे। करेडा के जैन मंदिर के विज्ञप्ति लेख में इसका संदर वर्णन आया है। मेलादे का पुत्र सहनपाल नवलखा भी राणा कुम्भा और मोकल के समय में मुख्यमंत्री था। मेलादे ने ज्ञानहंसगणि से संदेहदोलावली नामक पुस्तक लिखवाई थी। प्रशस्ति में इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है। रामदेव नवलखा ने अनेक साधुओं को ज्ञान दिया था। और तीर्थों के जीर्णोद्धार तथा मंदिर निर्माण के लिए सहस्रों रूपए व्यय किये थे। ५.१२ धनपाल की प्रतिभाशालिनी पुत्रीः ई. सन ६७०, धारा नगरी के राजा भोज एक महान कवि और विद्वान लेखक थे। उनके दरबार में कई प्रसिद्ध विद्वानों, पंडितों, कवियों तथा लेखकों को सम्मान प्राप्त था। उनमें धनपाल को राज कवि का स्थान प्राप्त था। धनपाल उज्जैनी में रहने लगे। उनके भाई शोभन ने जैन धर्म में महेन्द्र सूरि से दीक्षा अंगीकार की थी। कवि धनपाल कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी अनुज से प्रभावित होकर जैन धर्म को मानने लगे। बहन सुंदरी भी श्रमणोपासिका थी। धनपाल का विवाह धनश्री नामक अति कुलीन कन्या से हुआ था। बचपन से ही वेद वेदान्त, स्मति, पुराण आदि के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी प्रसिद्ध रचना तिलकमंजरी संस्कृत भाषा का श्रेष्ठ गद्य काव्य है, इस तिलकमंजरी की रचना के साथ एक घटना का उल्लेख प्राप्त होता है। राजा भोज ने किसी कारण रूष्ट होकर इसे जला दिया। वर्षों के परिश्रम से लिखी कादम्बरी के समान सुंदर कति को इस प्रकार अग्नि में भस्म होते देख धनपाल अत्यंत उद्विग्न हो गये। पिता को ग्लानियुक्त तथा उदास देखकर उनकी नौ वर्ष की बाल पंडिता पुत्री ने कारण पूछा। धनपाल ने राजदरबार की घटना कह सुनाई। बालिका ने उन्हें सान्त्वना देते हुए धीरज बंधाया तथा तिलकमंजरी की मूल प्रति का आधा भाग अपनी स्मरण शक्ति से बोलकर सुनाया जिसे पिता ने लिख दिया | धनपाल ने शेष आधे भाग की पुनः रचना करके तिलकमंजरी को संपूर्ण किया। इस प्रकार इस अद्भुत प्रतिभाशालिनी बालिका ने एक बहुमूल्य ग्रंथ को लुप्त होने से बचा लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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